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________________ २४४ भाव-संग्रह दुःखेन लभते वित्तं वित्त लब्धेऽपि दुर्लभ चित्तम् । लब्धे चित्ते वित्ते सुवुर्लभः पात्रलाभश्च ।। ५६१ ।। अर्थ- इस संसार मे धन की प्राप्ति बड़े दुःख से होती है यदि कदाचित क्रिमी भाग्य विशेष से धन की प्राप्ति हो भी जाय तो चित्त में दान देने की उत्सुकता होना अत्यन्त कठीन है। कदाचित त्रिन ग दान देने की उत्सुकता भी प्राप्त हो जाय और धन भी प्राप्त हो जाय नां दान देने के लियासी पात्रका लाम होना अत्यन्त कठीन । चित्त वित्तं पत्तं तिडिअ वि गवेइ कयि जइ पुरिसो। तोर लहान अनुकूलं सपने पुतं कलतं च ।। चित्तं वित्तं पात्रं त्रीच्यपि प्राप्नोति कथमपि पवि पुरुषः । तहि म लभतेऽनुकूलं स्वजन पुत्रं कलत्रं च ।। ५६२ ।। अर्थ- यदि किसी शुभ कर्म के उदय से धन भी मिल जाय, चित्तमें दान देने को उत्सुकता भी प्राप्त हो जाय और पात्र मिलने का भी संयोग प्राप्त हो जाय तो दान देने के लिये अपने स्वजन परिजन पुत्र स्त्री आदि अपने अनुकूल नहीं होते है। पडिकूल माइ काऊं विधं कुन्चति धम्म दाणस्स । उवएति पुबुद्धि दुग्गइगम कारया असुहा ।। प्रतिकूलमारि कृत्वा विघ्न कुर्वन्ति धर्मदानस्य । उपदिशन्ति दुर्बुद्धि दुर्गतिगमनकारकामशुभाम् ।। ५६३ ।। अर्थ-- यदि स्त्री पुत्र स्वजन आदि अपने प्रतिकूल हो जाते है, तो फिर वे लोग धर्मस्थानों में दान देने में विघ्न करते है। तथा नरकादिक दुर्गतियों के कारण भूत और अत्यन्त अशुभ दुर्बुद्धि का उपदेश देते है। . भावार्य- प्रतिकूल होने से पुत्रादिक धर्मस्थानों में तो दान का निषेध कर देते है और नरकादिक, दुर्गतियों में लेजाने वाले दान का वा ऐसे कारों का उपदेश देते है । आगे और भी कहते है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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