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________________ श्री नागसेन मुनि भी कहते है :- .. अत्रेदानी निषेधति शुक्लध्यान जिनोत्तमाः । धमध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्वितिनां ॥८३।। यत्पुनयनकायस्य ध्यानभित्यागमे वचः ।। श्रेण्यो ध्यान प्रतोयोक्तं तनावस्तानिषेधक 11८४।। ' घ्यातारश्चेन सन्त्यधत सागरपारगाः । तत्किमरूपश्रुतेन ध्यातव्यं स्वशक्तितः ॥८५।।... चरितारो न चेत्सन्ति यथाख्यातस्य संप्रति । तरिकमन्ये यथाशक्तिमाचरन्तु तपस्विनः ।।८६।। सभ्यरगुरूपदेशन समभ्यस्यननारतं । ' धारणासौष्ट वाचयानं प्रत्ययानपि पश्यति ।।८७।। यथाऽभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणिस्युर्महान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थैर्य लमतेऽभ्यासर्वासना ।।८८॥ श्री जिनेन्द्र भगवान ने इस पंचम काल में यहां पर भरत क्षेत्रमें । शुक्ल ध्यान का अभाव वताया है । उपराम-क्षपक श्रेणी से नीचे रहने बालों को धर्मध्यान होना बताया है । वज्रकायबारी उत्तम संहननदालों को जो ध्यान आगम में कहा है वह श्रेणी की अपेक्षा से कहा है। अध स्तन ध्यान के लिये निषेध नहीं है। यद्यपि वर्तमान में श्रुतवलीसमान ध्यानी मुनी नहीं हो सकते है, तो भी क्या अल्पश्रुत के ज्ञाताओं को अपने शक्ती के अनुसार ध्यान नहीं करना चाहिये ? अर्थात अवश्य करना चाहिये । तत्वार्थ सूत्र से "शक्तीतस्त्यागतपसी" शक्त्ती के अनुसार त्याग और शक्ती के अनुसार तपस्या करना चाहिये । यद्यपि वर्तमान काल मे यथाख्यात चारित्र के आचरण करनेवाले नहीं हो सकते है, तो क्या तपस्वियोंको यथाशक्त्ती सम्मायिक-छेदोस्थापनादि सराग चारित्र नहीं पालन करना चाहिय . अर्थाल अवश्य ही पालन करना चाहिो । जो साधक भले प्रकार गुरु के उपदेश से भले प्रकार आध्यात्मिक अभ्यास निरंतर करते रहेगा, तो उसकी वारणा उत्सम हो जायगी तो वह अनेक चमत्कार को भी देख सकेगा.। जैसे बड़े बड़े -
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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