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________________ । शास्त्र भी अभ्यास के बल से समझने में आते है उसी प्रकार. अभ्यास करनेवालों का भी ध्यान स्थिर हो जाता है । इसलिये पंचम काल में भी यथाशक्ति प्रमाद रहित होकर काम भोग, पंचेन्द्रिय के विषयों से, स्त्री, कुटुम्ब, व्यापारादि से विरक्त होकर, स्यातिपूजा लाभादि से रहित होकर धर्मध्यान पूर्वक आत्मध्यान करना चाहिये । इससे पाप कर्मों का सवर, निर्जरा. होगी ।। निरिच्छक सातिशय पुण्य बंध होगा, जिससे परम्परा स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होगी। जैसे करोडपति, अरबपति स्वमूलधन के अनुसार व्यापार करते है, उसी प्रकार साधारण व्यक्ती स्वशक्ति अनुसार व्यापार करता है । अधिकं धन नहीं रहने पर निरुद्यम होकर बैठा नहीं रहता है, यदि बैठा रहेगा तो पेट पोषण भी नहीं हो पायेगा, श्रीमंत होने की बात तो दूर रही । इसी प्रकार पंचम काल में स्वशति अनुसार श्रावक दान पूजा शील व्रत, उपत्रांसादि जघन्य शत्र देश चारित्र पालन नहीं करेंगे तो पाप संचय के कारण नरक निगोद ही मिलेगा, संसार वृद्धि होगी, मोक्ष तो अत्यन्त दूर की बात है, सुस्वर्ग की भी प्राप्ति नहीं होगी। पंचम काल में मुनियों की एक वर्ष की तपस्या चतुर्थ काल में १००० वर्ष के समान : इस अत्यंत विपरीत हुण्डावसपिणी रुप इस पंचम काल में अत्यंत दुर्द्धर महाप्रतादि धारण कर अत्यन्त भौतिक भोग विलास वातावरण में विचरण करना लोहा के चना चबाने के समान है। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है, अथवा बहुरुपीयों का खेल नहीं है, वाग्विलास नहीं है । वातानुकूल ( एयरकण्डिशन) कमरे में बैठकर वातानुकूल ( स्वयं के अनुकूल वात), अध्यात्मिक शुष्क बौद्धिक चर्चा नहीं है । जो धीर, वीर है, वही पंचग काल में जिनेन्द्र भगवान का निग्रंथ लिंग को धारण कर सकता है । सह्णणं अधणीचं कालो सो दुस्समो मणो चवलो । तह यि हु धौरा पुरिसा महत्वय भर धरण उच्छहिया ।।१३०॥ (भाव संग्रह) वरिस सहस्सेण पुरा जं कम्म हणह तेण काएण । तं संपइ बरिसेण हु णिज्जरया होण संहणणे ॥१३१!! (भाव संग्रह)
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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