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मुनि निवास :
कले फाले बने चासो वर्जनीयो मुनीश्वरः । . स्थीयतेच जिनागारे प्रामाविषु विशेषतः ।। (इन्द्रनंदि नीतिसार)
कलि काल में मनिश्वरों को वनवास छोडने योग्य है, विशेषत: जिन मंदिर, ग्रामादिक में रहना चाहिये । कुन्दकुन्दात्रर्य मोक्ष पाहुड में कहते है :भर हे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हधेइ साहुस्स । तं अप्पसहाव ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।।६।। अज्ज वि तिरयण सुद्धा अप्पा क्राए विलहइ इंदतं । लोपंतिय देवत्तं तत्य चुआ णिचुदि जति ।।७७(समयसार)
भरत क्षेत्र में दुःषम काल में मुनियों को धर्म ध्यान होता है वे धर्मध्यान के माध्यम से आत्मा में स्थित रहते है जो इस प्रकार नहीं मानता है वह भी अज्ञानी मिथ्या दृष्टि है ॥७६।।
अभी मी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र से शुद्ध मुनि आत्म ध्यान कर इन्द्रत्व एवं लौकान्तिक देव होता है वहां से च्युत होकर । उत्तम मानव पर्याय को प्राप्त कर मुनि होकर परम निर्वाण को प्राप्त करते है ।
शंका :- वर्तमान काल में मूनियों को शुक्ल ध्यान नहीं होता है तो क्या चारित्र भी नहीं हो सकता है ? " वीतराग चारित्राभावे कथं गौणत्व मित्या शेवयाह :-"
समाधान :- माइल्ल धवल “द्रव्य' स्वभाव प्रकाशक" में इसका निर्णय करते है।
मसितम जहाणु क्कस्सा सराय इब धोयराय सामग्गी । तम्हा सुद्धचरितं पंचमकाले विदेसदो अस्थि ।।३४४॥
"तव्य स्वभाव प्रकाशक मयचक्र" जिस प्रकार सरागदशा के भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद होते है। अतः एक देश वीतराग चारित्र पंचम काल में भी होता है ।।३४४।।