________________
१२८
विशिष्ट तपश्चरण कर्तव्यं नो चेत दुर्लभ परंपराया प्राप्त मनुष्यजन निष्फलमिति ।
(अध्याय २ परमात्म प्रकाश - १३३) अर्थ:- गृहस्थों को अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चय रत्नत्रय को उपा देय करके लक्षमे रख कर भेद रत्नत्रयात्मक अर्थात ब्यबहार रत्नत्रया स्मक श्रावक धर्म-दान पूजादि पालन करने योग्य है । तथा यतिओं को निश्चय रत्नत्रयात्मक अभेद रत्नत्रय में स्थित होकर व्यवहार रत्नत्रया के वल से विशेष तपश्चरण करने योग्य है। यदि उपरोक्त वार्तव्य श्राव तथा मुनि पालन नहीं करते है तो दुर्लभ परंपरा से प्राप्त मनुष्य जन्म निष्फल जाता है
इसलिये श्रावक व्यवहार मोक्ष मार्गी है, मनी निश्चय मोक्ष मागौं ।
सर्व धर्ममयं प्रवचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं । क्वाप्येतद द्वयवत्करोति चरितं प्रशाषनानामपि । तस्मावेष तवन्धरस्वलनं स्नानं गजस्याथमा । मसोन्मत्तविचेष्टितं न हितो गेहाश्रमः सर्वथा ।। ४१ ।।
( आत्मानुशासन ) गृहस्थाश्रम विद्वज्जनों के भी चारित्र को प्रायः किसी सामायिक । आदि शुभ कार्यो में पूर्णतया धर्मरुप किसी विषय भोगादि रुप कार्य में पूर्ण तया पाप रुप तथा किसी जिन गृहादि के निर्माणादि रुप कार्य में उभय ( पाप-पुण्य ) रुप करता है । इसलिये यह गृहस्थाश्रम अन्धे के। रस्सी मांजने के समान अथवा हाथी के समान अथवा शराबी या पागल की प्रवृत्ति के समान सर्वधा हितकारक नहीं है।
अनाधिचा दोषोत्थ चतुःसंज्ञाश्यरातुराः । शशवस्त्रज्ञान विमुखाः सागारा विषयोन्मुखा ।।
( प. आशाधर - सा. ध. २) । अनादि कालीन अविद्यारुपी दोषो से उत्पन्न होनेवाली आहार-भय मैथुन परिग्रह रुपी संज्ञा ज्वर से पीडित निरन्तर आत्मज्ञान से विमुख