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विषयों के मुख गृहस्य होते है अर्थात विषय भोगों मे विशव रत के कारण उनका लक्ष नहीं जाता है। ममाद्यविद्यानुस्थतां ग्रंथसंज्ञामपासितुम् ।। अपरायन्तः सागाराः प्रायो विषय भूछिता ॥
( पं. आशाधर - सा. घ. ३ ) अनादि कालीन अज्ञान के कारण परपरा में आने वाली परित्र मा को छोड़ने के लिपं असमर्थ प्राय कर के विधा गोगों में छि हाथ होते है ।
भहस्स लक्षणं पुण धम्म चितेइ भोय परिमाको । चितिय घमं सेवइ पुगरवि भोए जाहिज्छारे ।
( भा. सं - गा. ३६५ ) भद्र ध्यानी गृहस्थ जब तक धार्मिक शुभ क्रियाय करता है तब तक वह भोगोंपभोग को त्याग करता है। इसलिये गृहस्थों को धार्मिक क्रियायें हस्तिस्नानवत् है । अर्थात धार्मिक क्रियायों के समय में किचित संबर और निर्जरा होती है परन्तु भोगोपभोग के समय आश्रय एवं बंध हो जाता है।
पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थों को होने योग्य व्यानअाउदं जमाणं मई आस्थिति तम्हि गुणठाणे । बहु आरम्भ परिग्गड़ जुतस्त च गरिय त धम्म ।
( मा. सं. -- गा. ३५० ) न कर्मो नो कर्म न समावि रुपं
न लेश्या म योग न भोगादि रुपम् । न वर्णन गंधं न रसादि रूपं
विवानन्द रुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ७ ।। न पुण्यं न पापं न जन्म न मृत्यू
न मित्र नामित्रं न शिष्यं न गुरुम् । न दीनं न होनं न वृद्धो न बालो
शिवानन्द एवं नमो स्वस्वरूपम् ।। ८॥