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इस पंचम गुणस्थान में आर्त-रौद्र ध्यान एवं भद्र ध्यान होता है, श्रावक बहु आरम्भ और परिग्रह से सहित होने के कारण उनको धर्म ध्यान नहीं होता है ।
गिह वावार रयाणं गेहोणं इंदियस्थं परिकलियं । अट्ठमाणं जायइ लई वा मोह छपणाणं ।। झाणेहि तेहि पावं जपण्णं तं खबइ मद्द माणेण । जीवो उबसम जुत्तो देसजई णाण संपण्णो ।।
( भा. सं. - गा. ३६३-३६४१ | कृषि वाणिज्यादि व्यापार करनेवाले गृहस्थों को नाना प्रकार के इन्द्रिय मोहक पदार्थ विषय में आर्त ध्यान उत्पन्न होता है । मोह से गुजर गृहस्थों को रौद्र ध्यान भी होता है । पर दोनों ध्यान से उत्पन्न पाप को | उपशमानेवाले एवं ध्यान संपन्न श्रावक भद्रध्यान के माध्यम से नाश | करता है।
असुह कम्मस्स णासो सुहस्स वा होइ केणुवाएण । इय चितं तस्स हवे अपाय विचयं परं झाणं ।।
( भा. सं. -- गा. ३६८ ) अशुभ कर्म का नाश होकर शुभ कर्मों की प्राप्ति किन उपायों से होगी ऐसा विचार करनेवाला गृहस्थ अपाय विचय नामक धर्म ध्यान का स्वामी होता है।
मुक्खं धम्ममाणं उत्तं तु पमाय विरहिए ठाणे । वेश विरए पमत्ते उपधारेणेव गायव ।।
( भा. सं. - गा. १७१ ) ! यह चार प्रकार का धर्मध्यान मुख्य रीति से अप्रमत्त गुणस्थान में होता है। एवं देश विरत और प्रमत्त विरत इन दोनों गुणस्थानों में उपचार से धर्म ध्यान होता है ऐसा जानना चाहिये ।
सेतु सुद्धो भावो तस्सुवलंभो य होई गुणठाणे । पण एमाव रहिये सयलविं बारित्त जुत्तस्स ।।
( भा. सं. - गा. ६)