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आनार्य श्री देवसेन का परिचय
जाने पर भी आश्चर्य है कि आज भी जिन रूप को धारण करने वाले माथु गण दीख रहे है।
पाण्डस प्रवर आशाधरजी न लिखा है कि वर्तमान मुनिराजों को चतुर्थ काल के मुनिराजों के समान ही समझ कर उनकी श्रद्धापूजा करना चाहिये ।
जो लोग मुनिराजों की परीक्षा में ही अपनी बुद्धि का समस्त संतुलन खो बैठते हैं और कहते फिरते है कि इनकी इर्या समिती ठीक नहीं है । ये उद्दिष्ट भोजी है । आदि, इन तथ्य कुतों का उत्तर देते हुए पूर्वाचार्य बाह्ते है कि
भरितमानप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् ' अति श्रावक लोगो ! वीतराग मुनिराजों को केवल आहार देने मात्र के लिये तुम क्या परीक्षा करते फिरते हो ? जब कि पंचम काल के अंत समय तक साधु गण पाये जाएंगे और वे चतुर्थ कालबत् ही अठ्ठावीस मूल गुणधारी परम पवित्र शुद्धात्मा होंगे ऐसा सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्राचार्य त्रिलोकसार में लिखते हैं । तव आज कल के मुनिराजों पर आक्षेप करना सिवा अशुभ कर्म बन्ध के और कुछ नहीं है ।
आचार्य देवसेनजी का स्पष्ट वक्तव्य
आज कल के मुनिराजों के विषय में आचार्य देवसेन जी ने अपने द्वारा रचित इस भाव संग्रह में बहुत ही सुन्दर आगमोक्त सिद्धांत का स्पष्टीकरण किया है वह इस प्रकार है
दुविहो जिणेहि कहिओ जिणको सह य थपिर कयो य । सो जिशफप्यो उसो उसमसंह्णण प्रारिस्स ।। ११९ ॥ जस्थण कंटय भागो पाए गयणम्मि रय पबिछम्मि । फेडंति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिका ॥ १२० ।। जल वरिसणवा याई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं । अच्छति णिराहारा काओसग्गेण छम्मास ।। १२१ ।।