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एवं भगन्ति केचित् अशरीरी निष्कलो हरिः सिद्धः । अवतरति मत्यलोके देहं गृह्णातीच्छया ।। २३५ ।।
साव-सग्रह
अर्थ - इस विषय में कोई कोई लोग यह कहते है कि विष्णु का कृष्ण शरीर रहित है, सब दोषों से रहित है और सिद्ध है ऐसे वे कृष्ण मनुष्य लोक में आकर अपनी इच्छानुसार शरीर को ग्रहण करते हैं । आगे इसी बातका निराकरण करते है 1
जइ तुप्पं णवणीयं णवणीयं पुर्णावि बोइजइ बुद्धं । तो सिद्धिगओ जोवो पुणरवि देहाई गिण्हेइ ॥ २३६ ॥
यदि घृतं नवनीतं पुनरपि भवेद्यदि दुग्धम् । तहि सिद्धगतो जीवः पुनरपि देहाविकं गृह्णाति ।। २३६ ।।
अर्थ- यदि घी बदल कर फिर भी मक्खन वन जाय और मक्खन बदल कर फिर दूध बनजाय तो समझना चाहिये कि सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए जीव भी फिरसे शरीर धारण कर सकते है ।
भावार्थ- जब समस्त कर्मों का नाश हो जाता है तब सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है तथा कर्मों के नाश होने पर उन कर्मों से बना हुआ शरीर भी नष्ट हो जाता है। ऐसी अवस्था में सिद्ध जीव फिर कभी भी शरीर धारण नहीं कर सकते। जिस दूधका दही बन गया वा घी मक्खन बन गया या घी मक्खन वा दही फिर कभी भी दूध नहीं
पृच्छामि ते पवनभोजिन् कोमलांगो, 1
काचित्त्वया शरदचन्द्र मुखी न दृष्टा ? ।।
अर्थ - रामचंद्र वन में किसी सर्प से पूछते है कि हे सर्प तुम्हारी चंचल जिह्वा वृक्ष के पत्ते के समान चंचल है। तुम्हारे लाल नेत्र बंधूक के पुष्प के दल के समान बहुत ही लाल है तथा तुम सदाकाल वायु का ही भक्षण करते रहते हो, ऐसे हे सर्प ! क्या तुमने शरद ऋतु के चंद्रमा के समान सुंदर मुख को धारण करने वाली और अत्यन्त कोमल शरीर धारण करने वाली ऐसी कोई स्त्री देखी है ?