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________________ ६६ जिन दर्शन महिमा: दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दशनं स्वर्गसोपानं दर्शन मोक्षसाधनम् || दर्शनेन जिनेंद्राणां साधूनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पापं छिद्रहस्ते यथोदकम् || वीतरागमुख वृष्टचा पद्मराग समप्रभम् । नैकजन्म कृतं पापं वर्शनेन विनश्यति ॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य संसार ध्वान्तनाशनम् । बोधनं वित्तपद्मस्य समस्तार्थ प्रकाशनम् ।। वर्शनं जिनचंद्रस्य सद्धर्मामृतवर्षणम् । जन्मवाह विनाशाय वर्धनं सुखवारिधेः ।। जन्म जन्म कृतं पापं अम्मकोटयामुपाजितम् । जन्म मृत्युजरा रोगं हन्यते जिनदर्शनात् || एया विसा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेग | पुष्णाणि य पूरेदं आसिद्धि: परंपरा सुहाणं ।। ७४९ ।। ( भगवती आराधना ) बीएण विणा सरसं इच्छदि सो बासम भएण विणा । आराधण मिच्छन्तो आराधण भतिम करतो ।। ७५० ।। अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है, और मोक्ष प्राप्ति होने तक इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है, इससे इन्द्र पद, चक्रपर्ती पद, अहमिन्द्रपद, और तीर्थंकर पद के सुखों की प्राप्ति होती है ।। ७४३ ।। जो भगवान की भक्ति आराधना नहीं करना चाहता है तथा रत्नत्रय सिद्धि रूप फल की इच्छा रखता है, वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टी की इच्छा करता है ।। ७५२ ।। सोहि कारणेहि पढम राम्मत्त सुप्पा देखि केइ जाइस्सरा । केइ सोकण, केई जिवनं दण ।। सूत्र २२ ॥ ( ध. पु. ६ पे ४२७ )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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