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________________ १४६ भाव-संग्रह एक अखंड अरूनी द्रव्य है तथा वह सर्वत्र व्याप्त है । उसम मे आकाश के मध्य भाग में लोकाकारा है । जिनने आकाश में धन अधर्म द्रव्य भरे हा है उतने आकाश को लोका काश कहते है। लोकाकारा और अलो. काकाश विभाग करने वाला धर्म द्रव्य ही है। जितने आकाश म द्रव्य है उतना ही आकाश लो काकाश है। उसी लोकाकाश में जीव पुद्गल धमं अधर्म काल आदि समस्त द्रव्य भरे हुए है । जितने आकाश में जीवादिक पदार्थ दिखाई पडे उतने आकाश को लोकाकाश नाहते है। आग काल द्रव्य को कहते ।। वतणगण जनाणं बव्याणं हाइ कारणं कालो । सो दुविह भय भिणो परमत्यो होइ ववहारो ।। वर्तनागुणयुक्ताना द्रव्याणां भवति कारणं का: । स द्विविधभेदभिन्नः परमार्थो भवति व्यवहारः ।। ३०९ ।। अर्थ- जो जीवादिक द्रव्य प्रति समय परिवर्तन स्वरूप होते है उनके उस परिवर्तन में काल द्रव्य कारण है । उस काल के दो पंद है एक परार्थ काल और दूसरा व्यवहार काल । आगे परमार्थ काल को कहते हैं । परमस्थो कालाण लोयपदेसु हि संठिया णिच्चं । एक्के के एक्केका अपएसा रयण रासिव्य ।। परमार्थ: कालाणवः लोकप्रवेश हि संस्थिता नित्यः । एककस्मिन् एकैका अप्रदेशा रत्लानां राशिरिष ।। ३१० ।। अर्थ- काल के जो अणु है उनको परमार्थ काल कहते है । वे कालाण लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु ठहरा हुआ है। इसलिये लाकाकाश के जितने प्रदेश है उतने ही कालाणु है बे आपसमें मिलते नहीं है किंतु रनों की राशिके समान अलग अलग ही रहते है। इन्ही कालाओं को परमार्थ काल कहते है। इन्हीं कालागुओं से व्यवहार काल प्रगट होता है । पुद्गल का एक परमाणु जितने समय में एक प्रदेश में दूसरे प्रदेन तक पहुंचता है उतनी देर को एक समय कहते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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