________________
भाव-संग्रह
यही बात आगे कहते है ।
ट्टण कालो समओ पुमालपरमाणु वाण संजाओ । ववहारस्य मुक्खो उप्पणो तोद भावो स ||
वर्तन कालः समयः पुद्गलपरमाणूनां संजातः । व्यवहारस्य च मुख्यः उत्पद्यामानोऽतोतो भावी ॥ ३११ ॥
१४७
अर्थ- वर्तना काल जो मुख्य काल है। उस से व्यवहार काल उत्पन्न हो जाता है । कालागू अशु रूप है इसलिये उससे उत्पन्न हुआ व्यवहार काल भी सबसे छोटा समय रूपी ही होता है । तथा वह व्यवहार काल पुद्गल परमाणुओं के निमित्त मे होता है । अर्थात् एक पुद् - गल का परमाणु जितनी देर में एक कालाणु से दूसरे कालाणु तक जाता है तथा मंद गति से जाता है तब एक एक समय होता है। ऐसे समय अनंतानंत बीत गये और आगे अनंतानंत समय होंगे। इस प्रकार भूत वर्तमान और भविष्य के भेद से उस व्यवहार काल के तीन भेद हो जाते है ।
आगे व्यवहार काल के और भी भेद कहते है ।
तेसि पि य समयाणं संखारहियाण आवली होई । संखेज्जा बलि गुणिओ उस्सासो होइ जिणबिट्ठो ॥
तेषामपि च समयानां संख्यारहितानां आवलो भवति । संख्यातावली गुणित उच्छवासो भवति जिनवृष्टः ॥ ३१२ ।।
अर्थ - असंख्यात समयों की एक आवली होती है तथा संख्यात आवलियों का एक उच्छवास होता है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा
है ।
सत्तु सासे थोओ सत्त त्योएहि होइ लअ इक्को । अट्ठत्तीसद्ध लवा णाली वेणालिया मुहुप्तं तु || सप्तोच्छ्वासेन स्तोकः सप्तस्तोकं भवति लव एकः । अष्ट त्रिंशवर्धरुवा नाली द्विनालिका मुहूर्तस्तु ।। ३१३ ||