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भाव-संग्रह
घडवायां उत्पन्तः खरेण यथा भवसि अत्र वैसरः । सम्मिश्रगुणः अगृहीतगृहिसकल संयमः ॥ १९९ ॥
तथा
अर्थ- जिस प्रकार खच्चर जाति का गधा घोडी से उत्पन्न होता है परंतु गधे से होता है घोड़ा से नहीं होता । घांडी गया दोनों से उत्पन्न होने वाला एक तीसरी जाति का जीब है । इसी प्रकार इस तीसरे मिश्रगुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों से मिले हुए एक तीसरी जाति के परिणाम होते हैं । इस तीसरे गुणस्थान में रहने वाले जीव न तो गृहस्थों का एक देश संयम धारण कर सकते हैं और न सकल संयम धारण कर सकते है ।
तत्थ ण बंधइ आउं कुणइ ण कालो हु तेण भावेण । सम्मं वा मिच्छं वा पडिवज्जिय मरइ नियमेन || २०० ।।
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तत्र न बध्नाति आयुः करोति न कालो हि तेन भावेन । सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं वा प्रतिपद्म म्रियते नियमेन ॥ २०० ॥
अर्थ- इस तीसरे गुणस्थान में रहने वाला जीव न तो आयु का बंध कर सकता है और न मर सकता है । तीसरे गुणस्थान के भावों से ये दोनों बाते नहीं कर सकता। वह जीव या तो सम्यग्दर्शन धारण कर मर सकता है अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान मे जाकर मर सकता है।
आगे इस गुणस्थान में कैसे परिणाम होते हैं सो दिखलाते है
अट्टरउद्दं झापइ देवा सब्बे वि हुति णमणीया । धम्मासच्चे पदरा गुणाणं किं पि ण विणिए इ ॥ २०१ ॥ आतंरौद्रं ध्यायति देथाः सर्वेपि भवन्ति नमनीयाः । धर्माः सर्वे प्रवरा गुणागुणों किमपि न विजनाति ॥ २०१ ॥
अर्थ - इस तीसरे गुणस्थान मे रहनेवाले जीव के आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है अर्थात् वह इन्हीं दोनों का चितवन करता रहता है। इसके सिवाय वह समझता है कि संसार मे जितने देव है वे सब नमस्कार करने योग्य है और जितने धर्म है वे सब उत्तम है। इस प्रकार समझता हुआ वह जीव गुण वा अवगुण किसी को नही जानता, इस देव