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________________ भाव-संग्रह में अवगुण है इसमें गुण है इस बात को वह नहीं समझता वह सब का समान समझता है । आगे उसके भाव और कैसे होते हैं सा दिखलाते हैं: • अस्थि जिणमि कहिय वेए कहियं च हरिपुराणे य । सइयागमेण कहित तच्चं कविलेण कहिथं च ।। २०२ ।। अस्ति जिनागमे कथितं वेदे कथितं च हरिपुराणो वा । शैवागमेन कथितं तत्त्वं कपिलेन कथितं च ।। २०२।। वंभी करेइ तिजयं किण्हो पालेइ उपरि छुहिऊण । रुद्दो संहरइ पुणो पलयं काऊग णिस्सेस ॥ २०३ ।। ब्रह्मा करोति त्रिजगत् कृष्णाः पालयति उपरि स्पृष्ट्वा । रुद्रः संहरति पुनः प्रलयं कृत्वा निः शषम् ।। २०३ ।। अर्थ- वह तीसरे गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्रदेव ने भी कहा है शवो के आगम में भी कहा है ओर कपिल ने भी कहा है । इन सबके कहे हुए तस्व ठीक है, ऐसा समझकर वह सबको मानता है। इसके मिवाय वह समझता है कि ब्रह्मा तीनों लोकों को उत्पन्न करता है, कृष्ण कार से हो स्पर्श कर उन तीनों लोकों का पालन करता है और महादेव उन समस्त तीनों लोकों का प्रलय कर सत्र वा संहार बा नान कर देता है । इसके सिवाय वह चंडी मुंडी महालक्ष्मी आदि सब देव देवि योंकी पुजा करता है. पितरों को तप्त करने के लिये श्राद्ध करता है, अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये अन्य प्रकार के ढोंग करता है । ऐसें रोन अनेक प्रकार के भाव इस तीसरे गुणस्थान में होते हैं। आग ब्रह्मा विष्णु महेश के इन कार्यों का सिराकरण करते हैं। जइ भो कुणइ जयं तो कि सग्गिदरज्ज कण । बहऊण बंभ लोयं उगतवं तवणरलोए । २०४ ।। यदि ब्रह्मा करोति जगतहि किं स्वर्गेन्द्रराज्यकार्येण । सयुत्वा ब्रह्मलोकं उग्रतपः तप्ते नरलोके ।। २०४ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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