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________________ प्रचण्ड पवनैः प्रायश्चाल्यन्ते यत्र भमतः । तमामाविभ. स्वान्स तिरल न किम् ॥१६।। (ज्ञानार्णव) स्त्रियां प्रचंड पवन के समान है। प्रचंड पवन बडे बडे भूभतों (पर्वतों) को उड़ा देता है और स्त्रियाँ बड़े बड़े भभतोंको गजाओं को घला देती है। ऐसी स्त्रियों से जो स्वभाव से ही चंचल है ऐसा मन क्या चलायमान नहीं होगा ? भावार्थ :- स्त्रियों के समर्ग में ध्यान की योग्यता कहा: ।। खपुष्पमथवा शङग खरस्यापि प्रतीयते ।। ने पुनवेश कालेऽपि ध्यानसिद्धिगुहाश्रमे ।।१७।। (जानार्णव) आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते है । कदाचित किसी देश वा काल मे ध्यान की सिद्धि होनी हो तो किसी देश बा काल में संभव नहीं है ।।१७।। जो विषय बासना में लोन होकर गृहस्थ में रहकर स्वयं को उत्कृष्ट ध्यानी मानता है वह आत्मवंचन है । वह बक ध्यानी के समान विषयों का ही ध्यान करता है न कि आत्मध्यान । यदि अंतरग में विषयों के प्रति अनुराग नहीं है तो बाह्य में सेवन भी नहीं सकता है। रागद्वेष निवृत्ते हिंसादि निवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नपतीन् ।।४८।। (रत्नकरण्ड श्रावका.) अन्तरंग रागद्वेष की निवृत्ती से बाह्य हिसा, असत्य, चौर्य, कुशोल, परिग्रहादि वाह्य पापों से निश्चित रुप से निवृत्ती हो जाती है। जब तक अतरंग में रागादि भाव रहेंगे तब तक बहिरंग में उसके कार्यरुप धन सम्पत्ती के ऊपर लालसा, काम भोग, सेवन आदि रहेगा। अन्तरग बहिरम परिग्रह रहने के कारण श्रावक उत्कृष्ट ध्यान का पात्र नहीं हो सकता। देवसेन आचार्य महाप्राज्ञ होने पर भी अत्यन्त निगर्वी थे 1 'गणी विद्वान न करोति गर्वम्' इस न्याय के अनुसार आराधना सार को
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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