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समाप्त करते हुए लघुता प्रगट किये है :अपणिय तच्चे ग इमं भणियं जं किंपि वेवसेणेण । सो हंतु तं मुगिदा अस्थि हु जइ पवयग विरुद्धम् ||११५।।
(आराधना सार) तत्व को नहीं जाननेवाला मैं देवसेन आचार्य जो कुछ नाता है उसमें यदि निश्चय से आगम के विरुद्ध कुछ भी हो तो द्रव्य भाव श्रुत के धारी श्रुत केवली महामनि सशोधन करें । ये भावश्रुतविरहिता: केवलं द्रव्यश्श्रुतावलंबिनस्तेषां पुनरिहाराधनासार शोधने नाधिकारः । यं परब्रह्माराधनातत्परास्त एवात्राधिकारिण इत्यर्थः ॥
जो भावश्रुत मे रहित होते हुए जो द्वन्य श्रुत का आश्रय लेते है वे इस आराधनासार नय के सशोधन करने के अधिकारी नहीं है। किन्तु जो परम ब्रह्म की आराधना में तत्पर है वे ही इस आराधना सार के संशोधन करने के अधिकारी है। इससे सिद्ध होता है कि भाववत ज्ञान से रहित द्रव्यश्रुत ज्ञानी वा कोई महत्व नहीं है क्योंकि स्वमत या स्वाभिप्राय के विरोध में कुछ जिनागम मे परिवर्तन करके स्वभावानुसार प्रतिपादन करेगा उससे जिनागम का हनन एवं सत्य का नाश होगा।
भावसंग्रह :- देवसेन के स्वयं देव होने का प्रायोगिक मार्ग (भाब संग्रह ) देव सेन आचार्य को बृहत्तमकृति यह भाव सम्रह है। इसमें प्राकृत गाथा बद्ध ७०१ गाथाएँ है । इसमे कुशल, निर्मीक आचार्यश्री ने मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं का सशक्त मुक्त कंठ से विरोध किया है। आचार्यश्री ने किसी प्रकार कलुषित मना नाव से अरवा पक्षपात से अथवा सम्प्रदाय व्यामोह से अथवा दसरों को अपमानित करने के लिये कुठार घात नहीं किये किंतु वस्तु स्वरुप का प्रतिपादन करने के लिये अथवा सम्यक मार्ग से भ्रष्ट हुए प्राणियों के ऊपर दया भाव कयन
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मौनव्रतधरः मुनि रत्ननिधिः निषिकारम् ।
निर्वाणरूपाय ध्यायेत् आत्मप्राप्ति संसिद्धये ॥ ६) विध्यध्वनि धारिणो वेवो शुभ्रवर्णा ज्ञानरुपम् ।
सर्वतो वदनो ध्यायेत् अज्ञान ध्वान्त नाशये ॥