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________________ ३८ किये है। जो भव्य सम्यग्दृष्टि है उनके लिये इनकी वाणी अमृततुल्य है जिसका पान कर वह अमृत पद अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर सकता है । परंतु जो अभव्य है वह इस अमृत को प्राप्त नहीं कर सकता हैं शास्त्रानो मणिबन्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः । अङगारवत् खलो दीप्तो मली या भस्म वा भवेत् ॥ १७६ ॥ ( आत्मानुशासन. ) शास्त्ररूपी अग्नि में भव्य ( सम्यग्दृष्टि ) रुपी मणि विशुद्धी को प्राप्त कर निर्वाण सुख को प्राप्त करता है परंतु जो अभव्य रुप अंगार है वह शास्त्र रूपी अग्नि मे गिरकर पहले थोडा प्रकाशवान होता है पश्चात मलीन हो जाता है अथवा भस्म हो जाता है। यहां पर शास्त्र को आचार्य गुणधर स्वामी ने अग्नि की उपमा दी है क्योंकि अग्नि पक्षपात रहित होकर योग्य ईंधन को जलाती है एवं प्रकाश देती है उसी प्रकार शास्त्र रूप अग्नि निरपेक्ष से ज्ञान रूपी प्रकाश देती है जैन पुष्प रागादि रत्न अग्नि के माध्यम से किट्टकालिमा से रहित निर्मल हो जाता हे उसी प्रकार भव्य रूपी रत्न शास्त्र रूपी अग्नि के माध्यम से कर्म कलंक से रहित होकर निर्मल चित्चमत्कार ज्योति रूप में परिणमन करता है । जिस प्रकार लकड़ी अग्नि के माध्यम से पहले प्रकाशमान होती है बाद में मलीन रूप कोयला रूप परिणित होती है या भस्मरूप परिणित करती है उसी प्रकार अभव्य मिथ्यादृष्टी शास्त्र अग्नि से के माध्यम से पहले प्रकाशवान होता है अर्थात क्षयोपशम के माध्यम मे शास्त्र हो जाता है परंतु मिध्यात्व के कारण मिथ्याज्ञानी होकर आगम का विरोध करते हैं । अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों के कारण अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचारों का प्रचार प्रसार करके ज्ञान शून्य होकर पाप संचय कर संसार मे परिभ्रमण करते है । विकासयति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः । रिवार विन्दस्य कठोराइच गुरुवक्तयः || १४२ ।। ( आत्मानुशासन )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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