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जिस प्रकार सूर्य की कठोर भी किरणे कोमलसी कली को प्रफुल्लित करती है उसी प्रकार कठोर भी गुरू के वचन भव्य जीव के मन रूप कमल को प्रफुल्लित करते हैं अर्थात भव्य जीव कठोर भी गुरू के वचन सुनकर अपने दोष को दूर कर अभ्युदय एवं निःश्रेयस सुख को प्राप्त करते है । नीति प्रसिद्ध है:- हितं मनोहारी च दुर्लभं वचः " संसार मे हितकर मनोहारी वचन दुर्लभ है जैसे रोग को दूर करने के लिये वैद्य कडवी औषध देता है, उसी प्रकार भव्य जीवों के भवरूप रोग दूर करने के लिये भवरोग बैद्य गुरूदेव भी कठोर वचन रूप कड़वी औषध देते है उसका पान करके भक्ष्य भव रोग से दूर होकर परम स्वास्थ्य को प्राप्त करता है।
यह शास्त्र का नाम अन्वयर्थक संज्ञा वाला है क्योंकि इस शास्त्र में समस्त संसारी एवं मुक्त जीवों का भाव संग्रहित है अर्थात् वर्णित है। " उपयोग लक्षणं जीवः" इस सूत्रानुसार समस्त जीब राशि उपयोगमय है। परंतु कर्म सापेक्षता एवं कर्म निरपेक्षतानुसार अनेकानेक भेद प्रभेद हो जाते है । सामान्यापेक्षा उपयोग एक, विशेषापेक्षा-शुद्ध-अशुद्ध की अपेक्षा दो, शुद्ध, शुभ, अशुभरूप से तीन, गुणस्थानापेक्षा १४ इसी प्रकार संख्यात-असत्यादि भेद प्रभेद है। मध्यम प्रतिपत बेः अनुसार उपयोग तीन प्रकार है जिसमे समस्त भाव गभित है । यथा
जीको परिणमदि जदा सुहेण असुहेण या सुहो अनुहो । सुद्धेण लदा सुद्धो ह्यवि हि परिणाम सम्भावो ॥ ९ ।।
(प्रबचन सार) (जयसेनाचार्य कृत टीका) यथा स्फटिक मणि विशेषो निर्मलोऽपि जपा पुष्पादि रगत कृष्ण श्वेतोपाधिवेशन रक्त-कृष्ण श्वेत वर्णो भवति, तथाश्य जीवः स्वभावन
७) अहिंसा धर्मरुपाय अनेकातप्रकाशने ।
रत्नत्रयगुणांगाय नमो बु.खविनाशाय 11 ८) प्रशान्तरुपरुपाय कृतकृत्य: स्वरूपाय ।
परमात्मनिर्देशय नमो चैत्यजिनालये ।।