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________________ विकार रूप मनुष्यों के अपने आत्मा का हित कदापि सिद्ध नहीं होता ऐसे गृहस्थावास मे उत्तम ध्यान कैसे हो ? विपन्महापडक निमग्न बुद्धयः प्ररुद्ध रस्मज्वरयन्त्रपीडिताः । परिग्रहव्यालविषाग्नि भूच्छिता विवेकवीभ्यां गहिणः स्खलन्त्यमी॥१३॥ (शामार्णव) गृहस्थ अवस्था की आपदा रुपी महान कीचड मे जिनकी बुद्धि फंसी हुई है, तथा जो प्रचुरता से बढ़े हुए राग रुपी ज्वर के यंत्र से पीडित है, और जो परिग्रह रुपी सपं के विष की ज्वाला से मूच्छित हुए है, वे गृहस्थ गण विवेकरुपी बीथी मे (गली मे) चलते हुए स्खलित हो जाते है अर्थात च्युत हो जाते है । अपवा समीचीन मार्ग में (मोक्ष मार्ग) भ्रष्ट हो जाते है। हिताहित विमूढात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेद्गृहो । अनेकारम्भः पाप कोशकारः कृमियथा ॥१४॥ (मानार्णव) जैसे रेशम का क्रिडा अपने ही मुख से तारों को निकालकर अपने को ही उसमें आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार हिताहित में विचार शून्य होकर यह गृहस्थजन भी अनेक प्रकार के आरंभों से पापोपार्जन करके अपने को शीघ्र ही पाप जाल में फंसा लेते है । जेतुं जन्म शतेनापि रागाग्ररिपताकिनी ।। बिना संयम शस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ।।१५।। (जानार्णव) रागादि शत्रुओं की सेना संयमरुपी शस्त्र के बिना बड़े बड़े सत्पुरुषों से (राजाओं से) सैकडों जन्म लेकर भी जब जीती नहीं जा सकती है, तो अन्य की कथा ही क्या है। ३) अष्टाचारं धरः सूरी गुण निधिः संघाधिपम् । गम्भीररुपाम ध्यायेत् शुद्ध चारित्र प्राप्तये ।। ४) आगमरधः पाठक ज्ञान निधिः गुणाधारः । प्रशान्त रुपाय ध्यायेत् विनयाचारप्राप्तये ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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