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________________ ३४ दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोह बन्हिना । प्रमाद मदमुत्सृज्य नि:क्रान्ता योगिनः परम ||८|| ( ज्ञाताणंव ) महामोहरूपी अग्नि से जलते हुए इस जगत में से केवल मुनिगण ही प्रमाद को छोडकर निकलते है, अन्य कोई नहीं । न प्रमादजयं कर्तुं धो धनैरपि पायते । महाय्यसन संकीर्णे गृहवासेऽतिनिन्विते |९|| ( ज्ञानार्णव ) अनेक कष्टों से भरे हुए अतिनिन्दित गृहवास में वर्ड २ बुद्धिमान् भी प्रमाद से पराजित करने में समर्थ नहीं है । इस कारण गृहस्थावस्था में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती । शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मतः । अतश्चित्त प्रशान्त्यर्थ सद्भिता गृहे स्थिति ||१०|| ( ज्ञानार्णव) गृहस्थ गण घर में रहते हुए अपने चपल मन को वश करने में असमर्थ होते है, अतएव वित्त की शांती के अर्थ सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड दिया और वे एकांत स्थान में रहकर ध्यानस्थ होने को उद्यमी हुए । प्रतिक्षण द्वन्द्वशतार्त्तं चेतसां नृणां दुराशाग्रह पीडितात्मनाम् । नितम्बिनी लोचन चौर संकटे गृहाश्रमे स्वात्महिते न सिद्ध्यति ॥ ११ ॥ ( ज्ञाना. ) सैकडों प्रकार के कलहों से दुःखित चित्त और घनादिक की दुराशारुपी पिशाची से पीडित मनुष्यों के प्रतिक्षण स्त्रियों के नेत्ररुपी चारो का है उपद्रव जिसमे ऐसे इस गृहस्थाश्रम में अपने आत्म हित की सिद्धी नहीं होती || निरन्तरार्त्ता नलदाह दुर्गमे कुवासनाध्वान्त विलुप्त लोचने । अनेक चिता ज्वर जित्यितात्मनां नृणां गृहेनात्महितं प्रसिद्धयति ॥ १२॥ निरन्तर पोडा रूप आर्त्तध्यान की अग्नि के दाह से दुर्गम, वसने के अयोग्य तथा काम क्रोधादि की कुवासना रूपी अंधकार से विलुप्त हो गई नेत्रों को दृष्टी जिसमे ऐम घरों में अनेक चिन्तारूपी ज्वर से
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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