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T) निर्गथता ४) मनवशता ५) परिषह जय । जहाँ पर उपरोक्त ५ कारण है वहाँ पर ध्यान हो सकता है। जो परिग्रहधारी, तत्व विज्ञान
रहित, काम भोग वि-त्रय वासमा में रत, शरीर पोषण करनेवाले है तको त्रिकाल में भी ध्यान को सिद्धि नहीं हो सकती है । ज्ञानार्णव में
मुमार्जन्मनिविष्णः शान्तचिसो वशी स्थिरः ।। - जिताक्षः संवृतो धोरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥६॥
(ज्ञानार्णव चतुर्थ सर्ग) (१) जो मोक्ष का इच्छुक है, (२) जो संसार से विरक्त है, ३) मोह क्षोत्र रहित शांतचित्त है, (४) मन वश में है, (५) अगोपांग दृढ होने के कारण व्यायासन में स्थिर हो, (६) इन्द्रियों को होतकर उनके विषयों से विरक्त हो, (७) संवर सहित हो, (८) सपसर्ग परिषह सहन करने में धीर हो वहीं ध्यान के लिये योग्य पात्र
। उपरोक्त गुण अथवा विशेषण केवल निग्रंथ मुनि में ही पाये जा सकते है। किंतु जो उपरोक्त विशेषण से रहित, भुभुक्षु, बकध्यानी, संसार-शरीर भोग-धनसंपत्ति, स्त्रीकुटुम्ब में आसक्त है, चंचल मन वाले है पंचेन्द्रिय के दास है, व्रत-नियम-त्याग-तपश्चरण करने में नपुंसक के सदृश कायर है, वे कभी भी ध्यान के लिये योग्य पात्र नहीं हो
. मिथ्यादृष्टि की बात तो दूर रही किंतु सम्यग्दृष्टि और श्रावक मी जब तक गृह-घंधा में लीन रहता है तब तक उसको भी ध्यान की सिद्धि नहीं सकती है।
(१) नवदेवता स्तवन (संस्कृत )
लेखक -- पू. कनकनन्दि महाराज धर्मचक्रधरः जिनं जाणार्णवः चतुष्टयम् ।
चत्वार वर्म ध्यायेत् सर्व मोहोपो शान्तये ।। २) ज्ञानाम्बर धर: सिद्ध वर्णातितं मुणाष्टमम् ।
प्रणष्ट कर्माय स्मरेत् सर्वकर्म प्रणास्त्राये ।।