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________________ ध्यान युक्त मुनि को जव सका कोई प्रकार चिकल्प उत्पन्न होते रहते है तब तक शून्य अर्थात संकल्पातीत ध्यान अर्थात निर्विकल्प ध्यान नहीं हो सकता है। किंतु चिंता, भावना, अनुप्रेक्षा, मनन चिंतन होता है, तब तक निर्विकल्प ध्यान नहीं होता है, चिता भावनादि ध्यान के लिये साधन है । इस प्रकार ध्यान सबको प्राप्त नहीं होता है । उसके लिय विशेष साधक चाहिये ॥ यथा चइऊण सव्वसंग लिंग परिऊण जिण रिवाणं । अप्पाणं झाऊणं भविया सिझति णियमेण ।। ११२ । ( आगधनासार ) समस्त अंतरंग बहिरंग ग्रंथों को त्याग करके यथाजात रुप जिनेंद्र लिंग को धारण कर जो आत्मा का यान करेंग वे भव्य सम्पुर्ण कर्मों को नष्ट करके नियम से सिद्ध परमेष्ठी पद को प्राप्त करेंगे । इस प्रकार मिद्धात चक्रवर्ती नेमीचन्द्र आचार्य ने भी कहा है। तव सुरववव चेवा काणरह धुरंधरी हवे जम्हा । सम्हा ससिर्याणरदा सल्लबोए सदा होई ।। ५७ ।। (ब्रव्य संग्रह ) . ध्यान रुपी धुरा को धारण करने के लिये वही धीर पुरुष समर्ग हो सकता है जो अन्तरंग बहिरंग तपश्चरण को धारण किया है, जिनवाणी का अवगाहन किया है, महाव्रतों का पालन किया है। जो तप पावं व्रतों की आराधना नहीं करता है, वह भीरु पुरुष ध्यान रुपी धुरा को धारण करने में समर्थ नहीं हो सकता है । यदि ध्यानामृत के पान करने की इच्छा रखता है तो वह व्रत, श्रुत, एवं तप मे रत रहे, निरतिचार पूर्वक सेवन करें । ध्यान के लिये योग्य पात्रता चाहिये, बिना पात्रता के ध्यान की सिद्धी नहीं हो सकती है। आचार्यों ने कहा है:ध्यान का पात्र अपात्रः वराग्य तत्वविज्ञान नग्य वसवित्सला । परिवह जयश्चेति पंच से ध्यान हेत्वा ।। ध्यान के लिये पांच कारण है :- १) वैराग्य २) तत्वविज्ञान
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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