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________________ आराधना साधन है । जब तक व्यवहार आराधना नहीं करेंगे तब तक निश्चय आराधना नहीं हो सकती है। - निश्चय व्यवहार आराधना - नन निश्चयाराधनायां सत्या किमनया व्यवहाराराधनया साध्यमिति वदन्तं प्रत्याह ... पज्जय गयण भणिया चउम्विहाराहा हु जा सुत्ते । सा पुणु कारण भूवा णिच्छ्यजयदो चउक्कस्स ॥१२।। (आराधनासार) जो निश्चय से आत्मा से अभिन्न रुप दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, आराधना है उसके कारणभूत व्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्र तपाराधना है। कारण बिना कार्ये कभी भी संभव नहीं है । इस न्याय के अनुसार जब तक साधक व्यवहाराधना रुप परिणमन नहीं करता है तब तक निश्चयाराधना को प्राप्त नहीं कर सकता है। करिद्भव्यः प्राथमिकावस्थायां निश्चयाराधनायां स्थितिमलभमान स्तावद् व्यवहाराधनामाराधयति पश्चान्मनसो दाढचं प्राप्य क्रमेण निश्चयाराधनामाराधतीत्यभिप्राय: ।। (आराधना सार) अनादि कुसंस्कार के कारण इन्द्रिय और मन की बहिर्मुखना के कारण पुनः पुनः पूर्व में आत्मतत्व की भावना से रहित होने के कारण जब एक प्राथमिक आत्म तत्व की आराधना करता है तब वह व्यवहाराधना को पुनः पुनः आराधना करते हुए जव चंचल मन दृढ हो जाता है वाह्य विषय वासनाओं से विरत होता है, आत्म भावना स्थिर होती है तब क्रमशः निश्चयराधना की आराधना करता है। ध्यान का पात्र : देवसेन आचार्य ने शून्य ध्यान का विशेष वर्णन किया है । शून्य ध्यान अर्थात निर्विकल्प शुक्ल ध्यान है। जाम वियप्पो कोई जायइ जोइस्स साण जुत्तस्स । साम ण सुणं माणं चिता वा भावणा अहदा ॥ ८३ ॥ ( आराधनासार)
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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