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काल की शैश्व अवस्था है । अर्थात् प्राथमिक अवस्था है । अभी प्राय: १८४८४ वर्ष प्रमाण और भाव लिङगी मनि' रहेंगे । उपरोक्त सिद्धांत से ज्ञात होता है कि पहले धर्म का जीवन्त स्वरुष मुनि आयिका श्रावक श्राविका का पूर्वापह में अंत होगा, उनके अंत में धर्मका भी अंत होगा क्योंकि "न धर्मों धामिर्कविना ", मध्यान्ह में राजा का लोप, एवं सन्ध्याकाल में अग्नि का लोप होगा। इससे सिद्ध होता है भरत क्षेत्र में जब तक अग्नि है तब तक भाव लिङगी मुनि भी है । जो पंचम काल में भाव लिङगी मुनियों का अस्तित्व नहीं मानता, वह जिनवागी को नहीं मानता, जिनवाणी के न मानने के कारण मिथ्या दृष्टी है । भाव लिङगी मुनियों के सद्भाव के लिये स्वयं अग्नि ही सालोभूत है । धर्मादिक के नाश का कारण :परेग्गल अइरुणखादो जलग धम्में णिरासरण हदे । असुर वइगा रिवे सयलो लोओ हो अंधो ।८६२।।
पुद्गल द्रव्य में अत्यन्त कक्षता आ जाने से अग्नि का नाश, समीचीन धर्म के आश्रयभूत मुनिराज का अभाव हो जाने से धर्म का नाश तथा असुरेन्द्र द्वारा राजा का नाश हो जाने से सम्पूर्ण लोक अंधा हो जामा अर्थात् मार्गदर्शक कोई नहीं रहेगा ।
आचार्य श्री ने अंत में आशिर्वादात्मक अपना नाम देकर इस । शाल्व की समाप्ति की है :सोऊण तमसार रहयं मुणिणाह देवसेणेण । जो सद्दिको भात्रइ सो पादए सासयं सोकावं ॥७४11 (तत्वसार)
मुनिराज देवसेन रचित तत्वसार को सुनकर जो सम्यग्दृष्टी भावना करेगा बह शाश्वतिक सुख को प्राप्त करेगा। (६) आराधनासार :
आचार्य श्री के द्वारा प्रतिपादित आरावनासार में प्राकृत गाथाएँ ११५ है। इसमें निश्चय एवं व्यवहार दोनों आराधनाओं का सक्षिप्त एवं मौलिक वर्णन है । निश्चय आराधना साध्य और व्यवहार