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________________ भाव-मग्रह रहित होने के कारण अन्यन्त ऋद्ध और निर्मल है। इसलिये उनको भक्ति करने से, पूजा नमस्कार करने गे विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। तथा रस विशेप पण्य में इच्छिन पदार्थों की प्राप्ति होती है । इसके सिवाय शुद्ध निमल श्रात्मा की भक्ति पूजा करने में अपने आत्माको शुद्ध और निर्मल करने की भावना उत्पन्न होती है तथा उम भावना के अनमार बह जीव अपने आत्माको बेमा ही बनाने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार अपने आत्मा का कल्याण करता हुआ स्वयं अरहंत अवस्था को प्राप्त कर लेना है 1 वेणइयं मिच्छसं कहिये म्याण वजण तु । एसो उड्ड वोच्छ मिच्छतं संसर्य णाम ॥ ८४ ।। चैनयिकं मिथ्यात्वं कथितं मध्यानां वर्शनार्थ तु । इत अर्ध्व वक्ष्ये मिथ्यात्वं संशयं नाम ।। ८४॥ अर्थ- इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप मे वनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप कहा। इन सब मिथ्यात्वा का स्वम् । भव्य जीवों को त्याग करने के लिये कहा है । भव्य जीवों को इन समस्त मिथ्यात्वों का त्याग कर देना मधमु य तित्थेमु य श्रेण इयाणं समुभवो अस्थि । मजदा मुडियसीसा मिहिणो जग्गाय केई य ।। दुटुं गुणवंते वि य ममया भत्तीय सचदेवाणं । गामणं दडुब्व जणे परिकलियं तेहि मूढहि ॥ अर्थ- बैन यिफ मिथ्यात्व की उत्पत्ति समस्त तीर्थंकरों के समय मे होती है । इन वनयिक मिथ्यादृष्टी लोगों में कोई जटा धारी होते है, कोई अपने मस्तक को मुंडा लेने है, कोई चोटी रख लेते है और कोई नग्न होते है। उन लोगों ने यह कल्पना कर रक्खी है कि चाहे दुष्ट हो चाहे गुणी हो सबकी पूजा भक्ति करनी चाहिये । सब देवों को __ नमस्कार वा दंडवत करना चाहिये, सब की पूजा भक्ति करनी चाहिये ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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