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________________ andha l ॥ १५१ सिद्धावस्था-- अविह कम्मबियला गिट्टिय कज्जा प टु ससारा । दिढ सयालत्थ सारा सिद्धा सिखि मम विसतु ।। १ ।। (ति. प. ! पृ. १) जो आठ प्रकारके कर्मों में विकल अर्थात् रहित है, करने योग्य कर्मोको कर चुके है अर्थात् कृतकृत्य हैं, जिनका जन्म-मरण रूप संसार नष्ट हो चुका है और जिन्हों ने सम्पूर्ण पदार्थों के मार को देख लिया है, अर्थात् जो सर्वज्ञ है ऐमे मिद्ध परमेष्ठि मेरे लिये सिद्धि प्रदान करे। णिरूवमरूवा गिट्टिय कज्जा गिच्चा णिरंजणा णिरूना । हिम्मल बोधा सिद्धा णिरुवं जागति हु एक्कसमएणं ॥ १७ । ( ति, प. अध्या . ९ । पृ. ८७५ } अनुमस स्वरूप से संयवत, कृतकृत्य, नित्य, निरंजन, निरोग, और निर्मल बोध से युक्त सिद्ध एक ही समय में समस्त पदार्थों को सबंव जानते हैं। जामोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवीत धार्थ विशालं । वृद्धि न्हारा व्यपेत विषय बिराहितं निःप्रतिद्वन्द्व भायम् । अन्यद्रव्यानपेक्ष निरूपमममितं शाश्वतं सर्व कालम् । उत्कृष्टानन्त सारं परम सुखमत्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥ १७ ॥ ( सि. भक्ति । पृष्ठ ) सिद्ध भगवान का अलौकिक परमसुख आत्मा से ही उत्पन्न स्वध अतिशय सहित, संपूर्ण बाधाओ से रहित, विशाल, विस्तीर्ण, वृद्धि-झरा से रहित, संसारिक सुख से रहित, प्रतिद्वन्द्र से रहित, परद्रव्य निरपेक्ष उपमातीत अपरिमित, शाश्वतिक सर्वकाल स्थायी, परमोत्कर्णको प्राप्त अनन्त सार सहित महात्म्य से सहित है। उपसंहार--- अनादि काल से जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में कर्म कि तीव्रतासे
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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