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________________ १७२ · अत्यन्त अशुभ या अशुभ भावों में रहते हुये अत्यन्त दारू दुःखोंण को देनेवाले आतं रौद्र ध्यान करता है । इस अत्यन्त आत्म पतनरूप निम्न श्रेणीय अवस्था में यह जीव द्रव्य तत्वादि के स्वभाव के बारे में अपरिचित रहता है । उस समय आत्म जागृति नहीं होती हैं । परत्तु सुप्तवस्था रहती है परन्तु जब कभी अंतरंग - बहिरंग समस्त कारणों के सद्भाव होनेपर सद्गुरूका उद्बोधन प्राप्त करके चिर मोह निद्रा से जागृत होकर स्वयं को, गुरू को, विश्व को, सत्य को तत्व को दर्शन करता है | ( सम्यग्दर्शन प्राप्ति ) आनंदामृत स्वरूप स्वयं के स्वरूप को प्राप्त करने कि भावना होनेपर भी गमन करने का अनाश्यास होने के कारण आगे गमन अर्थात चारित्र स्वरूप अपना अत्थान नहीं कर पाता है। जिस प्रकार नवजात शिशु गमन करने कि इच्छा होने पर भी आगे गमन नही कर पाता है। उससे वह असमर्थ यात्री ( असंयत सम्यग्दृष्टि ) अन्तरंग में बहुत ही दुःख हो जाता है। जब वह मार्ग के विषय में परिचय प्राप्त करके अल्प शक्ति संचय करता है, तब वह मंद गति से गमण करना प्रारंभ करता है। पूर्व अनभ्यास के कारण, अपरिचित यात्री होने के कारण, शक्ति कम होने के कारण समर्थ मार्ग जानने वाले पथिक- अहितादिओंका आलम्बन लेता है, लेना ही होता हैं। उनसे प्रेम-अनुराग रखता है । विशेष मागं परिचय प्राप्त करता है | उन्हीं के निर्देशन के अनुसार उन्हीं के पीछे पीछे, धीरे धीरे चलता है । 44 " नहि कृतमुपकार साधव विश्मरन्ति । स्याय के अनुसार उन्हीं की सेवा, भक्ति, वन्दना करता हूँ इससे उसकी आत्मा कृतज्ञता के कारण रोमांच हो उठतो है। मार्ग पर स्वयं आरूढ यती भी उसकी धमं प्रीति वात्सल्य को देखकर जानकर उस भव्यात्मा को आगे बढ़ने का चारित्र पर आरुढ होने का प्रोत्साहन देते है । आज तक जितने भी अनंत सुख को को प्राप्त कर चुके वे सभी चारित्र पर आरुढ होकर ही कोई बिना चारित्र के आत्मीक सुख की बांधा करता है, आत्मिक सुख हुये है । यदि वह स्वयं को
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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