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माव-सा एषः प्रमत्त विरत: साधुमया कथितः समासेन : इतः कवं वक्ष्येऽप्रमसं निशाभयत् ।। ६१३ ।।
अर्थ- इस प्रकार मैने प्रमत्त विरत नाम के छठे गुण स्थान का स्वरुप अत्यंत संक्षेप मे कहा । अव इसके आगे अप्रमान विरत नाम के सातवे गुणस्थान का स्वरूप कहता हूँ, उगे मुदो ।
इस प्रकार प्रमत्त गुणस्थान का स्वरुप समाप्त हुआ । पछासेसपमाओं वय गुणसोलेहि मंडिओ गाणी ! अणुव समुओ अखवओ माणणिलोणोहु अप्पमती सो ।। नष्टाशेष प्रमादो व्रतंगुण शोलमण्डितो ज्ञानी। अनुपशमकोऽसपको ध्यान विलीनोहि अप्रमत्तः ।। ६१४ ।।
अर्थ- जिनके ऊपर लिखे त्रमाद सब नष्ट हो गये है जो व्रत शील गुणों से सुशोभित हे जो सम्यग्ज्ञानी है, और ध्यान मे सदा लीन रहते है तथा जो न तो उपशम श्रणी मे चढ़ रहे है और न क्षपक श्रेणी में चढ़ रहे है ऐसे मुनि अप्रमत्त कहलाते है । भावार्थ- सातवे गण स्थान' वर्ती मुनि पांचों महाव्रतों को पालन करते है अट्टाईस मूल गुणों को पालन करते है उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी में चढ़ने के लिय सन्मुख रहते है तथा ध्यान में ही लीन रहते है ।
पुवत्ता जे भावा हवंति पिण्णेव तत्थ नायचा । सुक्खं धम्मरमाणं हवेइ णियमेण इत्येव ।। पूर्वोक्ता ये भावा भवन्ति अय एव तत्र ज्ञातव्याः ।। मुख्यं धम्र्य ध्यानं भवेत् नियमेन अत्रैव ।। ६१५ ॥
अर्थ- इस सातवे गुणस्थान में पहले कहे हए औपशमिक भाव शायिक भाव और क्षायोपशमिक भाव तीनो भाव होते है । तथा इस जगन्थान में नियम पुर्वक मुख्य रीति से धर्म ध्यान होता है ।
मायारो पुण माण मेंय तहवफलं च तस्सेव । ए ए चउ अहियारा गायन्या होंति णियमेण ।।