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________________ भाव-संग्रह आवश्यकादि कर्म वैयावृत्यं च दान पूजादि । यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरा निमित्तम् ॥ ६१० ॥ जो सम्यग्दृष्टी पुरुष प्रतिदिन अपने आवश्यकों का पालन करता है, व्रत नियम आदि का पालन करता है वैयावृत्य करता है, पात्र दान देता है और भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है उस पुरुष का वह सब कार्य की निर्जरा का कारण माना जाता है । जस्सण हगामित्तं पायविलेयो ण ओसही लेवो । सो नावाइ समुद्दे तरेइ किमिच्छ भणिएण || यस्य न नभोगामित्वं पादविलेपो न औषधिलेपः । स नौरिव समुद्रं तारयति किमिच्छ भणितेन ।। ६११ ।। २६१ अर्थ- जिनके न तो आकाश गामिनी ऋद्धि है, न पैरों को स्थिर कर आकाश मे चलने की वृद्धि है और न औषधि लेप ऋद्धि है तथापि वह नाव के समान भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार कर देता है । भावार्थ- जिन मुनियों के कोई किसी प्रकार की वृद्धि नहीं है ऐसे साधारण मुनि भी अपने रत्नत्रय स्वरुप शरीर से अपने धर्मोपदेश से अनेक भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार कर देते है मुनियों की महिमा अपार वचनातीत है । जा संकप्पो चित्ते सुहासुहो भोयणाइ किरियाओ । ताकुण उसोविकिरियं पडोकमणाईय णिस्सेस | ६१२ ॥ यावत्सकल्पचित्ते शुभाशुभ: भोजनादि क्रियातः । तावत्करोतु तामपि क्रियां प्रतिक्रमणादिकां च निःशेषाम् ।६१२) अर्थ - इस छठं गुणस्थान मे रहने वाले मुनियों के हृदय में जबतक शुभ संकल्प वा अशुभ संकल्प विकल्प होते रहते है और जब तक भोजनादिक क्रियाओं की प्रवृत्ति होती रहती है, तब तक उन मुनियों को प्रतिक्रमण आदि समस्त क्रियायें करते रहना चाहिये । एसो पमत्त विरओ साहू मए कहिउ समासेण । एतो उड़ढं बोच्छं अप्पमत्तो णिसामेह ||
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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