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भात्र-सह
संवेगो निगो निंदां गहो उपशमो भक्तिः
वात्सल्यं अनुकंपा अष्टौ गुणा भवन्ति सम्यक्त्वे ।। २६३ ।। अर्थ- संवेग निर्वेद निंदा गर्दा उपशम भक्ति वा अनुकंपा
में सम्यग्दर्शन के आठ गुण होते है। संसार के दुःखों से भयभीत होने तथा धर्म में न होना संवेग है, संसार शरीर और भोगों से बिरक्तता धारण करना निवेंद है, अपने किये हुए पापों को निंदा अपने आप करना निंदा है, गुरु के समीप जाकर अपने दोषों का निरा करण करना गर्दा है। कोचादि पच्चीसों कषायों का त्याग करना उपशम है, दर्शन ज्ञान चारित्र और तप का वा इनको धारण करनेवालों का विनय करना भक्ति व्रतों के धारण करने में अनुराग धारण करना वा व्रतियों में अनुराग धारण करना वात्सल्य है, त्रस स्थावर इन छहों प्रकार के जीवों की रक्षा करना उनपर दया धारण करना अनूकंपा है । सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण कहलाते है । सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर ये आठ गुण अवश्य प्रगट हो जाते है । जिसके ये गुण प्रगट न हो, समझना चाहिये उसके सम्यग्दर्शन भी नहीं है ।
आगे सम्यग्दर्शन के भेद बतलाते है ।
दुहि तं पुण भणियं अहवा तिविहं कति आयरिया | अण्णाय अधिगमे वा सद्दहणं जं पयस्थाणं ॥ २६४ ॥ द्विविधं तत्पुनः भणितं अथवा त्रिविधं कथयन्त्याचार्याः । आज्ञया अधिगमेन वा श्रद्धानं यत् पदार्थानाम् ।। २६४ ।।
अर्थ- आचार्यों ने उस सम्यग्दर्शन के दो भेद बतलाये हैं अथवा तोन भेद बतलाये है। भगवान जिनेंद्र देव के कहे हुए पदार्थों का जो श्रद्धान भगवान की आज्ञा प्रमाण कर लिया जाता है उसको आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं और किसी के उपदेश द्वारा जो पदार्थों का श्रद्धान किया जाता है उसको अधिगमन सम्यग्दर्शन कहते है। इसके सिवाय सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज ये भी दो भेद है। जो सम्यग्दafari fear उपदेश के प्रगट हो जाता है उसको निसर्गज सम्यग्दगंन कहते है और जो सम्यग्दर्शन किसी के उपदेश से प्रगट होता है अधिवास कहते है। इस प्रकार निमित्त कारण के भेद से दो