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भाव-संग्रह
इयरायितर देवो संतो लग्गो उपहवं काउं । जप्पइ मा मिच्छसं गच्छह लाहऊण जिणधम्नं ।। १५७ ।। इतरो व्यन्तरदेवः शान्तिः लानः उपनवं कर्तुम । जल्पति मा मिथ्यात्वं गच्छत लब्ध्वा जिनधर्मम् ।। १५७ ।।
अर्थ- इधर आचार्य शांतिचन्द्र का जीव जो ब्यंतर देव हुआ था बह अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगा और कहने लगा कि तुम लोग जिनधर्मको धारण करके मिथ्यात्व को ग्रहण मत करो ।
भावार्थ- तुम लोग इस मिथ्याल्ब को छोडकर फिरसे जनधम धारण करो । इस प्रकार वह व्यन्त र देव कहने लगा।
भोहि तस्स पुआ अट्टविहा सयलदन्यसंपुण्णा | जा जिणचन्दे रइया सा अज्जवि दिण्णिया तस्स ।। १५८ ।। भोलेर पूमा आशातित महान व्यसम्पूर्णा ।
या जिनचन्द्रेण रचिता सा अद्यापि दीयते तस्मै ॥ १५८ ।। अर्थ- व्यन्तरदेवकी यह बात सुनकर और उसके किये हुए उपवों को देखकर जिनचन्द्र ने समस्त आठों द्रव्यों से उसकी पुजा की । वह पूजा इन श्वेतांवरों में आज तक की जाती है ।
अजवि सा बलिपूआ पढमयर विति तस्स णामेण 1 सो कुलदेवो उत्तो सेवउसंघस्स पूज्जो सो 11 १५९ ।। अण्णं च एव माई आयम दुवाइ मिच्छ सन्थाई । विरदत्ता अम्पाणां परिणवियं पढ़माए णरय ।।
इस प्रकार उस जिनचन्द्रने आगम में दुष्ट वा निद्य कहलाने वाले मिथ्यात्वकी रचना की और उन दुष्टताके कारण वह मरकर पहले नरक गया ।
रूदेण यन शिवमंगिगणः प्रयाति,
तद्रूपमेव मनुजेः परिपूज्यतेऽत्र । मिद्धिर्यदि प्रभवतीह नितम्बिनीनां, तद्रूपिणः कथममी न जिना भवन्ति ।।