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________________ भाव-सग्रह शांतिचन्द्र के मस्तक पर एक दीर्घ दण्ड मारा । उस दीर्घ दण्ड के धातसे के आचार्य शांतिचन्द्र मर गये और मरवर व्यंतर देव हुए। इयरो संझाइबइ पडिय पासंड सेवडो जाओ । अक्खुइ लोए धम्म सग्गत्थे अस्थि णिवाणं ।। १५४ ।। इतरः संघातिपतिः प्रकटय पाखण्ड: श्वेतपटो जातः । कथयति लोके धर्म सग्रंथास्ति निर्वाणम् ।। १५४ ।। अर्थ- तदन्तर उस जिनचन्द्र ने अपने को संधाधिपति घोषित किया अर्थात् वह स्वयं संघाधिपति बन गया और उसने यह श्वेतांबरों का मत चलाया इसने लोगोस कहा कि परिग्रह सहित होनेपर भी मोक्ष मानरुप धर्म की सिद्धी होती है तथा परिग्रह सहित होनेपर भी मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है 1 सत्थाई विरइयाई णिणियपासंडगयिसरिसाई। वक्खाणि ऊण लोए पवित्तिओ तारिसायरणो ॥ १५५ ।। शास्त्राणि विरचितानि निजनिजपाखण्डगृहीतसदृशानि । व्याख्याय लोके प्रवर्तितं तादृशाचरणम् ।। १५५ 11 अर्थ- तदनन्तर उस जिनचन्द्रने अपने अपने जो पाखण्ड ग्रहण कर लिये थे तथा जिन जिन आचरणों को उसने धारण कर लिया था उन्ही के समान आचरणों को कहने वाले शास्त्रों की रचना कर ली । तथा वैसे ही आचरण पालन करनेका वह उपदेश देता था। णिग्गंथं दृसित्ता णिदिता अप्पणां पसंसित्ता । जोवेइ मूढलोए कयमाम गहिह बहुदव्यं ।। १५६ ।। निर्ग्रन्थं दूषयित्वा निवित्वा आत्मानं प्रशस्य । जीवति मूढलोके कृतमायं गृहीत्या बहु द्रव्यम् ।। १५६ ॥ अर्थ- इस प्रकार उनने निम्रन्थ लिंग को दूषित किया उसकी निन्दा की और अपनी प्रशंसा की । इस प्रकार बहुतसे द्रव्यों को ग्रहण करते हुए जीवित रहते हैं।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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