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भाव मगह
अर्थ- उन जिनचंद्र शिष्य ने इतना कहकर फिर उन आचार्य शांतिचन्द्र से कहा कि हम लोगों में इस समय जो कुछ आचरण ग्रहण कर रखखा है इस लोक में वहीं सुखकर है । इसलिये हम सब इस दुःषम काल में इन धारण किये हुए आचरणों को छोड़ नहीं सवाते ।
ता संतिणां पउत्तं चरियपभट्टेहिं जीषियं लोए । एयं ण हु सुंदरियं दूसणयं जैणमग्गस्स ।। १५१ ।। तावत शान्तिना प्रोक्तं चारित्रभ्रष्टानां जीवितं लोके । एतन्नहि सुन्दर दूषणकं जैनमार्गस्य ॥ १५१ ॥
नार्थ- अपने मुम्य शिष्य जिनचन्द्र की बात सुन कर आचार्य शांतिचन्द्र ने फिर भी बड़ा है कि जो लोग अपने चरित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं, इस लोक में उनका जीवित रहना निंदनीय है, सुंदर बा शोभा युक्त नहीं है। ऐसा आचरण जन मार्ग को दुषित करने वाला है, जिद--- नीय है।
णिगत्थं पध्वयणं जिणवरणाहेण अक्खियं परमं । त छडिऊण अएणं पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ॥ १५२ ।। निम्रन्थं प्रवचनं जिनयरनाथेन कथितं परमम् । तत त्यक्त्वा अन्यत्प्रवर्तमानेन मिथ्यात्वम् ॥ १५२ ।।
अर्थ- आचार्य शांतिचन्द्र ने उस प्रथम शिष्य जिनचन्द्र से कहा कि भगवान जिनेन्द्र देव ने मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट मार्ग निग्रंथ मार्ग ही बतलाया है । एमे इस निर्मथ मार्ग को छोड़कर जो अन्य किसी भी मार्ग की प्रवृत्ति करता है तो उसका बह मिथ्यात्व कहलाता है ।
ता रुसिऊण पहओ सीसे सोसेण दोहबंडेण । । विरो घाएण मुओ जाओ सो वितरो देवो ॥ ११३ ।। तावत् रुषित्वा प्रतः शिरसि शिष्येण दोघण्टेन | स्थधिरो धातेन मुतो जातः स ध्यन्तरो देवः ॥ १५३ ॥
अर्थ- आचार्य शांतिचन्द्रकी यह बात सुनकर उनका मुख्य शिष्य जिनचन्द्र बहुत ही क्रोधित हुआ और कोधित होकर उसने आचार्य