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________________ भाव-संग्रह तं वयणं सोऊणं उस सोसेण तत्थ पढ़मेण । को सक्कइ धारे एयं अइदुखरायरणम् ।। १४७ ।। तद्वचनं श्रुत्वा उक्तं शिष्येन तत्र प्रथमेन । कः शक्नोति धत् एतदतिदुर्धराचरणम् ।। १४७ ।। अर्थ- आचार्य शान्ति चन्द्र के इन वचनों को सुनकर उनके मुम्य शिम्य जिनचन्द्र ने कहा कि अव ऐसे इन अत्यन्त कठिन दुर्धर आचरणों को कौन धारण कर सकता है। भावार्थ- अन्न : दुर्वर बरा का न करना अत्यन्त कदिन है इसलिये अब इन आचरणों को कोई नहीं पाल सकता। उबवासो य अलाभे अण्णे दुसहाई अन्तराइ । एयट्ठाणमचेलं अज्जायण वंभचेरं च ।। १४८ ॥ उपवासं चाला. अन्यानि दुःसहानि अन्तरायाणि । एफस्थानमचेलं अयाचनं ब्रम्हचर्य च ॥ १४८ ।। भूमोसपनं लोचो वे वे मासेहि असहणिज्जो ह । बावीस परोसहाई असहणिज्माई णिच्चंपि ॥ १४९ ।। भूमिशयनं लोजो द्विद्विमासेन असहनीयो हि। द्वाविंशतिपरीषहा असहनीया नित्यमपि || १४९ ।। अर्थ- यदि चर्या में किसी दिन आहार न मिला तो उस दिन उपवास करना पड़गा, इसके सिवाय चर्या के अनेक कठिन कठिन अंतराय है । विना मांगे किसी भी एक ही स्थान पर आहार लेना पडेगा । नन्त व्रत धारण करना पडेगा, ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ेगा, भूमिपर शयन करना पडेगा, दों दो महिने बाद केशों का लोच करना पड़ेगा, यह जोशों का लोच अत्यन्त असह्य होता है और अत्यंत असह्य ऐसी चाईंस परिषह सहन करनी पड़गी। जं पुण संपइ गहियं एय अम्हेहि किपि आपरणं । इह लोए सुक्खयर ण छडिमो हु तुस्समे काले ।। १५० ।। यत्पुनः सम्प्रति गृहीतं एतत् अस्माभिः किमप्याचरणम् 1 इह लोके सुखकर न त्यजामो हि दुःषमे काले ॥ १५० ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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