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________________ भाव-संग्रह जो पुज्जइ अणवरयं पावं णिहहइ आसिभत्र वद्धं । पडिदिणकय च विहुणइ अंधइ पउराई पुण्णाई ।। यः पूजयति अनबरतं पापं निर्दहति पूर्वभववद्धम् । प्रतिदिनंकृतं च विद्धिनोति वनाति प्रचुराणि पुण्यानि ॥४५६।। अर्थ- जो पुरुष इन यंत्रों की प्रतिदिन पूजा करता है वह अपने पूर्व भवों में संचित किये हुए समस्त पापों को जला देता है नष्ट कर देता है । तथा प्रति दिन के पापों को भी नष्ट कर देता है । इसके साथ ही वह बहुत अधिक मात्रा मे पुण्य कर्मों का संचय करता है । इह लोए पुण मता सन्वे सिज्मंति पढिय मिसेण : विज्जाओ सव्याओ हवंति फुड साणुकूलाओ |: इह लोके पुनर्मंत्राः सर्वे सिध्यन्ति पठितमात्रेण । विद्याः सर्वा भवन्ति स्फुटं सानक्ला: ।। ४५७ ।। अर्थ- इसके पठन करने मात्र से पाठ करने में इस लोक में भी समस्त मंत्र सिद्ध हो जाता है तथा जितनी विद्याएं है वे सब स्पष्ट गोति से अपने अनुकूल हो जाती है। गह भूय डायणीओ सच्चे णस्सति तस्स णामेण | णिन्यिासयरणं पयडष्ट्र सुसिद्ध चक्कप्पहावेण ।। प्रहभूतपिशाचिन्यः सर्वा नश्यन्ति तस्य नाम्ना । निविषीकरणं प्रकटयति सुसिद्ध चक्रप्रभावन ।। ४५८ ॥ अर्थ- ग्रहमत डाकिनी पिशाच्च आदि सिद्ध चक्र का नाम लेने से ही सब नष्ट हो जाते है । तथा इसी सिद्ध चक्र के प्रभाव से समस्त प्रकार के चित्र दूर हो जाते हैं । निर्विषीकरण प्रकट हो जाता है । फिर सबके वाहर ‘ओं नहीं आं क्रों अनावृताय स्वाहा ' यह मंत्र लिख कर अनावृत यक्ष को स्थापन करना चाहिये तदनतर भमंडल देकर अप्ट बज सहित क्षिति बीज और अष्ट इन्द्रायुध के बीजकर सहित लिखना चाहिये । इस प्रकार यह यंत्र विधि है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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