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पुण्ण फम्म बन्ध त्थीगं देसन्त्रवाणं मंगलं कारणं जुत्तं ण मुणीग । कम्मवखवखुवाणमिदि ण वोत्तुं जुत; पुण्णबन्ध हेनत्तं पडि बिसेसा भावादो मंगलस्सेव सराग संयमःस वि परिच्चागण संगादो; ण च एवं तेण संजम परिच्चागप्प सग भावेण विचुइगमणाभावप्पसंगादो । सराग संयमो गुणसेदि णिज्जराए कार , नेण बंधादो मोक्खो अमखेज्ज गुणो त्ति सराग संयमे गुगौणं वट्टणं जुत्तमिदि णं पच्चवठागं कायव्वं ; अरहंत णमोक्कारो से यदि वन्ध दो अमंखेज गुण कम्मक्खय कारओ त्ति तत्व वि मुणीणं पत्तिप्पसंगादो उत्तं च ।।
अरहंत णमोवकार यावेण रा जो करेदि पयउमदी । सो सम्व दुक्ख मोक्खं पावइ अचिरेण कालेग ।।
यदि कहा जाय कि पुण्य कर्म के वान्धने के इच्छुक देशवतियों को मंगल करना यक्त है, किन्तु कमरें के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है एसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पुण्य बन्ध के कारणों के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है । अर्थात पुण्य बन्ध के कारण भूत कार्यों को जैसे देश नती श्रावक करते है वसे ही मुनि भी करते हैं, मुनि के लिये उनका एकान्त से निषेध नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिस प्रकार मुनियों को मंगल के परित्याग के लिये या कहा जा रहा है उसी प्रकार उनके सराग संयम के भी परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है क्योंनिः देशजत के समान सराग संयम भी पुण्य बन्ध । का कारण है।
यदि कहा जाय कि मुनियों के सराग संयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है तो होवो सो मी वात नहीं है क्यों कि मुनि में के सराग संघम के परित्याग का प्रमंग प्राप्त होने से उनके मुक्तिगमन के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है ।
यदि कहा जाय कि सराग संयम गुणश्रेणी निजंग का कारण है क्योंकि उससे बन्ध की अपेक्षा मोश अर्थात क्रों को निर्जरा असंख्यात गणी होती है एसा भी निश्चय नहीं करना चाहिये, क्योंकि अरहन्त नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात गगी कर्म निर्जरा का कारण है इसलिए सराग संयम के समान उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है।