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________________ भावमय योग्य हो और मन तथा शरीर को मुख देने वाला हो । कालस्स य अणुरूवं रोयारोयनणं च पाऊणं । वायध्वं जह जोग्गं आहारं गेहवतेण ।। ५१३ ।। कालस्य चानुरूपं रोगारोगत्वं च ज्ञात्वा । दातव्यं यथायोग्य आहारं गेवता ।। ५१३ ।। अर्थ- गृहस्थों को यथा योग्य एसा आहार दान देना चाहिये जो समय वा ऋतुओं के अनुकूल हो, तथा जिसमे रोग वा नीरोगता का भी बिचार हो । पत्तस्सेस सहायो में दिग्णं दायगेण भत्तीए । तं कर पत्ते सोयि गहियन्यं विगइरायेण ॥ ५१४ ।। पात्रस्यैष स्वभावो यहत्तं दायकेन भक्त्या । तस्कर पात्रे शोधियित्वा गृहीतव्यं विगतरागण ।। ५१४ ।। अर्थ- पात्रका भी यह स्वभाव होना चाहिए कि दाता ने जो भक्तिपूर्वक दान दिया है उसको कर पात्र में लेना चाहिये और उसको शोधकर विना किसी राग द्वष के ग्रहण कर लेना चाहिये । आग दाता का भी स्वभाव बतलाते है। दायारेण पुणो विय अप्पाणी सुक्ल मिच्छमाणेण । वेच उत्तम दाणं विहिणा बरणीय सत्तीए ।। ५१५ ।। वात्रा पुनरपि च आत्मनः सुखमिच्छता । देयं उत्तमदानं विधिना वाणितशक्त्या ।। ५१५ ।। अर्थ - जो दाम देने वाला दाता अपने आत्मा को सुख पहुँचना चाहता है उसको विधि पूर्वक ऊपर कही हुई शक्ति के अनुसार उत्तम दान देना चाहिये । आगे लोभी दाता के लिये कहते है । जो पुण हंसद धण कणइ महिं कुभोयण देइ । जम्मि मम्मिदालिदाहण पुट्टिण सहो छंडेइ ।। ५१६ ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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