________________
भाव संग्रह
तह संसार समद्दे जाई जरामरण जलयरा किणे । दुश्ख सहस्साबत्ते तारेइ गुणाहियं पतं ॥ ५१० ॥ तथा संसार समद्रे जातिजरामरणजलचराकीणे । वुःखसहला वर्ते तारयति गुणाधिक पात्रम् ॥ ५१० ॥
अर्थ- जिस प्रकार अनेक प्रकार के रत्नों से भरी हुई और नाव में होने वाले अनेक गुणों को धारण करने वाली बिना छिद्रवाली नाव अनेक जलचर जीवों मे भरे हुए और अत्यंत भयानक एसे समुद्र से पार कर देती है उसी प्रकार अधिक अधिक गुणों से सुशोभित होने वाला पात्र जो जन्म जरा मरण रूपी विकट जलचर जीवों से भरा हुआ है
और जिसमें हजारों दुःवरूपो भंवर पड रहे है ऐसे इस संसार समद्र से भव्य जीवों को पार कर देता है । इस प्रकार संक्षेप से पात्रों का स्वरूप बतलाया।
आगे दान देने योग्य द्रव्य को बतलाते है । कुच्छिगयं जस्सउणं जोर तबझाणवंभ चरिएहि । सो पत्तो णित्यारइ अप्पाणं चेत्र कायारं ॥ ५११ ।। कुक्षिगतं यस्यान्नं जीयते तपो ध्यान ब्रह्मचर्यः । तत्पात्रं निस्तारयति आत्मानं चैव दातारम् ।। ५११ ।।
अर्थ- जिसका जो अन्न पेट में पहुंचने पर तपश्चरण ज्यान और ब्रह्मचर्य रादि के द्वारा सुखपूर्वक जीर्ण हो जाय पच जाय वही अन्न पात्र को भी संसार से पार कर देता है और दान देने वाले दाता को भी संसार से पार कर देता है।
एरिस पत्तम्मि वरे विज्जा आहारदाणमणबज्ज । पासुय सुद्धं अमलं जोगं मणदेह सुषणयरं ।। ५१२ ।। एनादश पात्रे बरे दद्यात आहारदान मनवनाम ।
प्रासुकं शुखं अमलं योग्यं मनोबेहसुसारम् ।। ५१२ ।। अर्थ- इस प्रकार कहे हुए उत्तम पात्रों को निरन्तर आहार दान देना चाहिये । वह आहार निर्दोष हो प्रासुक हो, शुद्ध हो, निर्मल हो,