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भाव-सग्रह
वेवः किल सिद्धातः तस्योर्थानःव पवार्थ षा व्रव्याणि । गुणमार्गणा स्थानात्यपि च जीवस्थानानि सर्वाणि ।। ५०६ ।। परमप्ययस्स एवं जीव कम्माण उहय सम्भावं । जो जाणइ सविसेस बेयमयं होइ तं पतं ।। परमात्मनो रुपं जोधकर्मणोरुभयोः स्वभावम् । यो जानाति सविशेष वेदमयं भवति तत्पात्रम् ।। ५०७
अर्थ- बेद शब्द का अर्थ सिद्धांत शास्त्र है. जो पुरुष सिद्धांत शास्त्रों को तथा उसकें. अ को जानता है, ना पदायों के स्वरूप का छहों द्रव्यों के स्वरूप को जानता है, समस्त गुणस्थान, मार्गणा स्थान और जीबस्थानों को जानता है, पममात्मा के स्वरुप को जानता है, जीवों का स्वभाव कर्मों का स्वभाव और कर्म विशिष्ट जोत्रा का स्वभाव जानता है तथा इन सबका स्वरुप विशेष रीति से जानता है उसको वेदमय पात्र कहते है।
वहिरमंतर तवसा कालो परिखवइ जिणोयएसेण | विद बंभचेर पाणी पत्तं तु तवोमयं भणियं ।। बाह्याभ्यन्तरतपसा कालं परिक्षिपति जिनोपवेशन । दृढब्रह्मचर्यों ज्ञानी पात्रं तु तपोमयं भणितम् ।। ५०८ ॥
अर्थ- जो पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए बाह्य और अभ्यतर तमश्चरण के द्वारा अपना समय व्यतीत करता है तथा जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को दृढता के साथ पालन करता है और सम्यग्ज्ञान को धारण करता हे उसको सपोमय पात्र कहते है । इस प्रकार वेदमय और तपोमय दो प्रकार के पात्र बतलाये । आगे उदाहरण देकर पात्रदान का फल बतलाते है।
जह णावा णिच्छिदा गुणमइया विविह रयण परिपुण्णा । तारइ पारावार बहु जलयर संकले भोमे ॥ यथा नौः निविण्छन्डा गुणमया त्रिविधरत्न परिपूणा । तारयति पारावारे बहुजलचर संकटे भीमे ।। ५०९॥