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________________ १४३ आदि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य सख्यात गुणा है । उससे क्षीण मोह जीव के गुणश्रेणी निजरा का द्रव्य संख्यास गुणा है । उससे स्वस्थान केवली जिन के गुणश्रेणी निर्जरा का प्रय असंख्यात गुणा है। उससे समुद्रात केली जिन के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। परन्तु गणश्रेणी आयाम का काल इसमे विपरीत है अर्थात समुद्जन्म के टली से लेकर विशुद्ध मिथ्यात् ष्टी तक काल क्रम से असंख्यात णा है। ( भो. जी. - धवल - ज. ध पु. १- पृ. ९७ ) । भावार्थ:-इस उपरोक्त सिद्धांत से यह सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टीसे सम्यग्दृष्टी असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता है । और अविरत सम्यग्दृष्टीसे देश सयत गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यात गुणीत कर्म निर्जरा करता है। और इनसे एक एकलसंयमो असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता है 1 मुख्य रुप से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से लेकर सातवाँ गुणस्थान पर्यत शभध्यान है । अतः यदि शुगध्यान से कर्म निर्जरा नहीं होती है ऐसा माननेपर आगम विरोध होगा | आगम त्रिकाल अबाधित सत्य है कभी अन्यथा नहीं हो सकता है । अतः सिद्ध हुआ कि उत्तरोत्तर शुभध्यान (शुभोपयोग) से अधिकाधिक कर्म निर्जरा होती है। पर मोक्ष हेतु" ! (त. सू. अध्याय – ९) आगे के दो शुभ और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हे । उपरोक्त गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध उत्तरोत्तर चार चरमोत्कृष्ट बानं तुर्गतिमाशाय शीलं सगतिकारणं । तपः कर्मविनाशाय भावना भवनाशिनी ।। दान से नरकाविकुगसि नाश होता है, शोल से सद्गति मिलती है तपः से कर्मनाश होता है, भावना से भवनाश होता है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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