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बढ़ती जाती है । यदि पुण्य प्रति सर्वथा संसार का कारण होता है उत्तरोत्तर गुणस्थानवी जीय अधिकाधिक दी सारी होने अत: वे । संसार का कारण कहना आगम विरोध है । जिन भगवान कि मुख निकली हुई द्वादशांग वाणी मे मुनियों को मुख्य करके आचारांग में। वर्णन है । और यथायोग्य धर्म को धारण करनेवाले गृहस्थों के लि उगासकाध्ययन अंग का वर्णन है, जो कि शभ ध्यान स्वरूप है, पूथ बन्ध का कारण है ! यदि शुभ क्रियाओं से सिर्फ पुण्य बन्ध ही होता संस.र काही कारण है तो क्या जिन भगवान के मुख से निकली हमः । बाणी संसार का कारण है ? क्या जिन भगवा' अनन्त दुःख स्वय संसार मे परिभ्रमण कराना चाहते है ? अत: पुण्य ससार का कारक कहना हेय करना यह जिन भगवान के वाणी या श्रुत का अवर्णवा
पुण्य प्रकृति शभध्यान से अथवा आदि के तीन शक्लध्यान से भी नष्ट नहीं होता है । केवल अयोग गुणस्थानवर्ती के चरम समय मे नष्ट | होता है उसके पहले नहीं ।
सातावेदनीय उक्कम्साणु भागं बन्धिय खीणकसाय समोगि-अनोगि गुणठाणाणि वगयरय वेग्रणीय उक्फस्साणुभागो एदेसु गुणठाणेसु लब्धदि ।
साता वेदनीय उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर क्षीण कसाय सयोगिः और अयोगी गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के इन गुणस्थानों में वेदनीय का उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है ।
( ज. प. पु. ४ पृ. १७) सुभाणं कम्माणमणुभाग घादो त्यि । शुम कर्मो का अनुभाग घात नहीं होता है।
( घ. पु. १ पृ. २७२ ) शमोपयोग का स्वरुप:
दवस्थिकाम धप्पण तच्च पयत्येसु सत्त णवमेंसु । बन्धण मोक्ने तक्कारणरुवे बारसणुषेवः ।।