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यणत्तय स्मरुवे अम्माकम्मो क्यादि सम्मे। इच्चेव माइगे जो वट्टदि सो होदि सुहमायो ।
छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नव पदार्थ, संसार और सके कारणश्य आश्रववन्ध और मोक्ष के कारण स्वरुप संबर-निर्जराभारह अनुप्रेक्षा-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-स-या चारित्र रुप रत्नत्रय धर्म, आर्म ( शुभ कर्म, श्रावक और मुनि के यथायोग्य षडावश्यक दान जादि स ममं इवादि रुप जो उपयोग है वह शुमभाव है।
( रयणसार - ६४.६.५ ) साता पुण्याश्रव वेदनीय आश्रव के काण
बया बानं तपः शीलं सत्य शौच दमः क्षमा ।
यावत्यं विनोतिश्च जिन पूजार्जव तथा ।। सराग संयमश्चैव संयमासंयमस्सथा । भूत व्रत्यनुकंपा स सद्धेश्यासाव हेतवः ॥
(गा. - २५.२६ ) 1 दया, दान, तप, शील, सत्य, शौचं, इन्द्रिय, दमन, क्षमा, यावृत्ति । विनय ता, जिन पूजा, सरलता तथा सराग संयम, संयमासंयम, जीव, दया | आदि साता वेदनीय के कारण है । यदि शुभपयोग को नहीं मानेंग
तो उपरोक्त समस्त गुणों का अभाव हो जायेगा । जिस से व्यवहार तीर्थ का विच्छेद होगा। व्यवहार तीर्थ का विच्छेद होने से धर्म का लोप होगा । धर्म के लोप मे इह लोक सुख स्वर्गादि अम्पदय सुख लोप होगा।
सिद्धांत कौनसा श्रावक पढ़ सकता है ?
सम्यक्त्य व्रतसंयुक्त। श्रायक: शीलधारिभिः । पठनीयं सुसिद्धान्तं रहस्ये न विना हि तत् ।। जो श्रावक सम्यक्त्व सहित है, व्रतों का पालन करनेवाला है शोलसम्पन्न है वह सिद्धांत शास्त्र रहस्य स्त्रशा को पट सकता है । यदि उपरोक्त गुणों से रहित है सो सिद्धांत शास्त्रको नहीं पढना चाहिये ।