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________________ इ ना ही नही नीति नियम सदाचार का लोप होने से देश, राष्ट्र समाज परिवार में अन्याय, दुराचार चलेगा जिससे बहुत बडा विप्ल होगा और सर्वत्र अशान्ति ही फैलेगी। इसलिये शान्ति स्थापना के लि. सम्यक् शुभोपयोग अत्यन्त आवश्यक है । जो कि मात्र स्वर्गादि अभ्युदय । सुस्त्र में ही कारण नहीं बल्कि परम्परा से मोक्ष का भी कारण है। अनेक आचार्य भी जिनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा किये है एते । पूज्यपादाचार्य अपने वचन को पवित्र करने के लिये जिन भगवान की स्तुति करते हुए अन्त में यहाँ तक कहते है कि सब पाचौ मम हृदये मम हत्यं तव पदद्वये लोनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाण संप्राप्ति ।। ६ ।। ( समाधि भक्ति - पूज्यपादाचार्य - इलो. ६) आपके पुनीत चरण मेरे हृदय मे एवं मेरे हृदय आपके पवित्र चरण में हे जगज्जष्ट परमा-ध्य त्रिलोकाधिपती जिनेन्द्र ! तब तक रहे, जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो । अर्थात मैं सदा आपक चरण | के उपासा वन के रहै। पुण्य फल काणि पुण्ण फलाणि? तित्थयर गगहर रिसिवकट्टि बलदेव वासुदेव सुर-विज्ाहरिडिओ। (घ. १-१-२ - प. १०५ ) शांका:- पुण्य के फल कौन से है ? समाधान:- तीर्थकार, गणधर, ऋषी, चक्रवर्ती देव, बलदेव, वाम । देव और विद्याधरों की ऋद्धियां पुण्य के फल है। पाप का स्वप पाति रक्षति आरटान शुभाविति पापम् । ददसद्वद्यादि । जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है। जंस - असाता बेदनीय ( स. सि. अध्याय ६ - सू. ३ प. २२० )
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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