________________
"
पापं नाम अनभिमतस्य पान |
( म. आ. वि. ३४- १३४ )
अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिसन होती है ऐसे कर्म को पाप कहते
है।
पापालथ कारण
वरिय पमाद बहुला कालस्तं लोलदा य विसयेसु । परपरित्ता पवादो पावस्त य आसवं कुर्णादि ॥
( पंचास्तिकाय - गा. १३९ )
लोलुपता, परको परता करना तथा परके अपवाद बोलना यह सब पाप के आश्रव के कारण है ।
१४७
पाप बन्ध का कारण
अथ देव शास्त्र मुनीनां योसी निन्दा करोति तस्य पाप बन्धो भवति ।
वेहं सस्यहं मुणिवरहं जो बिहेसु करेई ।
पियमे पात्र हवे समु जे संसार भमेव ॥ ६२ ॥
गुरु बिन कौन दिखाये बाट
( परमात्म प्रकाश द्वितीय अधिकार )
देव शास्त्र गुरु की जो निंदा करत है, उससे महान पाप का बन्ध होता है, वह पापी पाप के अभाव से नरक निगोदादि खोटी गति में मे अनन्त काल तक भटकता है ।
वीतराग देव, जिन सूत्र और निर्ग्रन्थ मुनियों से जो जीव द्वेष
पुस्तक | धितो नाधितो गुरुसन्निधौ ।
न शोभते सभामध्ये जारगर्भजया सोयाः ॥
जो गुरु से पुस्तक अध्ययन नहीं करता है, वह सभा में जसो प्रकार शोभायमान नहीं होता जैसे पर पुरुष से गर्भ धारण करनेवाली स्त्री ।।