SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-संग्रह उसको अस्तिकाय नहीं कहते है । रुपी बब्बं गंधरफास ऋष्ण संजुतं । लहि ऊण जीव बिट्टा कारण कम् S पुण गुनः रुपि द्रव्यं गंधर सस्पर्शवर्णसंयुक्तम् । लब्ध्वा जीवस्थितं कारणं कर्मबंधस्स ।। ३१७ ।। अर्थ- स्पर्श रस गंध वर्ण इन चारों गुणों सहित जो रूपी पुद्गल द्वन् है वह जीव में रहनेवाले शुभ अशुभ भावों को पाकर कर्म बंध का कारण हो जाता है । भावार्थ- पुद्गल का एक भेद कर्मव है । समस्त संसार में फैली हुई है । जब यह जीव अनेक शुभ वा अशुभ भाव करता है तभी वे वर्गणाएं उन शुभ अशुभ भावों की निमित्त पाकर कम रूप परिणत हो जाती और इस प्रकार के ही कर्म वर्गणाएं कर्म तंत्र का कारण बन जाती है। इस प्रकार अजीव पदार्थ का निरूपण किया । अत्र आगे पुण्य पाप को कहते है । सम्मतसुववएहि य कसाय उवसमण गुणसमाउसो । जो जीयो सो पुष्णं पादं विवरिय वोसाओ || १४९ सम्यत्कभु तव्रतैः कषायोपशमनगुणसमायुक्तः । यो जोवा स पुण्य पाप विपरीत दोषतः ।। ३१८ ।। अर्थ -- जब यह जीव सम्यग्दर्शन को धारण कर लेता है, भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए शास्त्रों को जान लेता है, व्रतों को धारण कर लेता है और जिसकी कषायें सब शांत हो जाती है उस समय वह जीव पुण्यरूप कहलाता है अर्थात् ऊपर लिखे सब कारणों से पुण्य कर्म की प्राप्ति होती है तथा उसके विपरीत हिंसा आदि पाप करना मिथ्यात्व चारण करना मिथ्या शास्त्रों का अध्ययन करना आदि पाप कहलाते है आठ कर्मों मे से साता वेदनीय, शुभ नाम, ऊंच गोत्र, और शुभ आयु ये पुण्य कर्म है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, असाता वेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु और नोंच गोत्र ये पाप कर्म है। इस प्रकार संक्षेप से पुण्य पाप का स्वरुप कहा
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy