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________________ १५० भाव-संग्रह आग आस्रव संवर का स्वरूप कहते है। मिमि गिर पद हो पनिसद सीप लहाणपरयं । लहिऊण जीव चिठ्ठा तह कम्मं भावि आवसई ।। गिरि निर्गत नदी प्रवाहः प्रविशति सरसि यथानवरतम । लध्या जीवस्थितं तथा कर्म भावि आत्रवति ॥ ३१९ ॥ अर्थ- जिस प्रकार किसी नदी का प्रवाह किसी पर्वत से निकलता है और वह किसी सरोवर में निरंतर प्रवेश करता रहता है, उसी प्रकार जीव के शुभ अमान परिणामी को पाकर आगामी काल के लिये कर्मों का आस्रव होता रहता है। आसवइ सुहेण सुहं असुहं आसबह असुह जोएण । जई ण इजलं तलाए समलं वा णिम्मलं विसई ।। आस्त्रयति शुभेन शुभ अशुभमास्रवति अशुभ योगेन । यथा नदी जलं तडागे समलं वा निर्मलं विशति ।। ३२५ ।। अर्थ- कमों का आस्रव मन वचन काय इन तीनों योगों से होता है । अशुभ योगो से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है और शुभ योगों से शुभ कमों का आस्रव होता है । मन बचन काय की प्रवृत्ति को योग कहते है । जो प्रवृत्ति सम्यत्त्क रुप होती है व्रत चारित्र रुप होती है वह शुभ प्रवृत्ती कहलाती है इसी को शुभ योग कहते है । शुम बोगों से पुण्य कर्मों का आस्रव होता है तथा जो प्रवृत्ति हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह रूप होती है, राग द्वष मोह रूप होती है वह अशुभ प्रवृत्ति कहलाती है इसी को अशुभ योग कहते है, और ऐसे अशुभ योगों से पाप कर्मों का आस्रव होता है। आगे संबर को कहते है। आसबह जं तु कम्मंण वय काएहि रायदोसेहि । ते संवरइ णिरुत्तं तिगुत्तिगुत्तो णिरालयो ।। आंत्रवति यत्त कर्म मनोवचन कार्य रागद्वेषः । तत्संयणोति निरुक्तं त्रिगुप्ति गुप्तो निरालम्ब: ।। ३२१ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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