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________________ भाव-सग्रह मिच्छाविट्ठोपुण्णं फलइ कुदेयेसु कुणर तिएि सु । कुच्छिय भोग घरासु य कुच्छ्यि पत्तस्स दाणेण ।। मिसावृष्टिपुण्यं फलति कुदेवेषु कुनरतिर्यक्षु । कुत्सित भोगधरासु च कुत्सित पात्रस्थ दानेन :) ४०० ॥ अर्थ- मिथ्या दष्टो पुरुष प्रायः कृत्सित पात्रों को दान देता है इसलिये वह पुरुष उस कृत्सित दान के फल से कुदेवों में उत्पन्न होता है, कुमनुष्यों में उत्पन्न होता है, वोचे तिर्यंचों में उत्पन्न होता है, और कुभोग भूमियों में उत्पन्न होता है । जद वि सुजाय वीयं ववसाय पउत्तओ बिजइ फसओ । कुच्छिय खेत्ते ण फलइ तं वोय जह तहा दाणं । यद्यपि सुजातं योजं व्यवसायप्रयुक्तो बपति कृषकः । कुत्सित क्षेत्रे न फलति तदीजं यता तथा दानम् ॥ ४०१ ।। अर्थ- यद्यपि किसान किसी उत्तम जाति के बीज को विधिपूर्वक (भूमि को अच्छी तरह जीत कर ) बोता है तथापि कुत्सित खेत में बोने से उस पर फल नहीं लगते इसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दान देने से उसका कुछ भी फल नहीं मिलता है। जइ फलइ कह वि दाणं कुच्छिय जाईहिं कुच्छिय सरोरं । कुच्छिय भोए बाउं पुणरवि पाडेइ संसारे । यदि फलति कथमपि वान कुत्सित नातिषु कुत्सितशरीरम् । कुत्सित भोगान् वत्वा पुनरपि पातयति संसारे ।। ४०२ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का फल मिलता भी है तो कुत्सित जाति मे उत्पन्न होना, कुत्सित शरीर धारण करना और कुत्सित मोगोपभोगों का प्राप्त होना आदि कुत्सित रूप ही फल मिलता है तथा कुत्सित पात्रों को दिया हुआ वह दान जीवको चतुर्गसि रूप इस संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है । संसार चक्कयाले परिम्ममतो हु जोणि लमखाई। पावइ विविहे दुखे विरयंतो विविह कम्माई ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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