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भारसग्रह
संसार चक्रवाले परिभ्रमन् हि योनिलक्षाणि । प्राप्नोति विविधान दुःखाग विरचयन् विविधकर्माणि ।। ४०३।।
-- कुपात्रों को दान देने वाला पुरुष त्रौरासी लाख योनियों में र हुए इस संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ अनेक प्रकार के वार्मों का उपार्जन करता रहता है और उन अशुभ कर्मों के फल से अनेक प्रकार के दुःखों को नोगता रहता है । इस प्रकार मिथ्य दृष्टियों के द्वारा विय हुए गुण्य का स्वरुप और उसका फल कहा।
अब आगे सम्यग्दृष्टि के द्वारा किये हुए गुण्य का फल बतलाते हैं। सम्मादिदो गुज म होइ संसार कारणं णियमा | मोक्खस्स होइ हेउं जइ बि पियाणं गा सो कुणइ ।। सम्सम्वृष्टेः पुण्यं न भवति संसारकारणं नियसमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निवानं न स करोति ।। ४०४ ।।
अर्थ- सम्यग्दृष्टी के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कमी नहीं होता यह नियम है । यदि सम्यग्दृष्टी पुरुष के द्वारा किये हए पुण्य में निदान न किया जाय तो वह पुष्य नियम से मोक्ष का ही कारण होता है। भावार्थ- कोई भी पुण्य कार्य कर उससे आगामो काल के भोगो की इच्छा करना या और कुछ चाहना निदान है, निदान नरक का कारण है । इसलिये उत्तम पुरुषों को मिदान कभी नहीं करना चाहिये।
अकइयणियाणसम्मो पुष्णं काऊण पाणचरमट्ठो । उप्पाज्जइ दिनलोए सुहपरिणामो सुलेसो वि ।। अकृतनिदान सम्यग्दृष्टिः पुण्यं कृत्वा शामवरणस्थः । उत्पद्यते विवि लोके शुभपरिणामः सुलेश्योप ।। ४०५ ।।
अर्थ- जिस सम्यग्दृष्टी पुरुष के शुभ परिणाम है, शुभ लेश्याएं हैं तथा जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को सारण करता है, ऐसा अभ्यग्दृष्टी पुरूष यदि निदान नहीं करता है तो वह पुरूष मरकर स्वर्ग लोक में ही उत्पन्न होता है ।