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________________ मात्र गंग्रह सशुहस्स कारणेहि थ कम्म छकेहि णिच्चं वट्टतो । पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भयंण णिच्छंतो ।। अशभस्य कारणे च कर्मषट्के नित्यं वर्तमानः । गुण्यस्य कारणानि बंधस्य भयेन नेच्छन् ॥ ३९७ ।। ण मुणइ इय जो पुरिसो जिण कहिय पयस्थ णवसरूवं तु । अप्पाणं सुयण मझे हासस्स य ठाणयं कुणइ ॥ न मनुने एहत् स. पुरुषो जिनकथित पदार्थ नवस्वरूपं तु। आत्मानं सुजनमध्ये हास्यस्य च स्थानकं करोति ।। ३९८ ।। अर्थ-- यह गृहस्थ अशुभ कर्मों के आने के कारण ऐसे असिमसि कृषि वाणिज्य आदि छहो कर्मों में लगा रहता है अर्थात् इन छहों कर्मों के द्वारा सदा काल अशुभ कर्मो का आस्रव करता रहता है तथापि जों केवल कर्मबध के भय से पुण्य के कारणों को करने की इच्छा नहीं करता, कहना चाहिये कि वह पुरुष भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए नो पदार्थों के स्वरूप को भी नहीं मानता, तथा वह पुरुष अपने को सज्जन पुरुषों के मध्य में हंसी का स्थान बनाता है । भावार्थ- वह हंसी का पात्र होता है। इसलिये किसी भी गृहस्थ को पुण्य के कारणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये । आग पुण्य के भंद बतलाते है - पुण्णं पुवायरिया दुविहं अक्खंति सुत्तउत्तीए । मिच्छ पउत्तेण क्रयं विवरियं सम्म जुत्तेण ।। पुण्यं पूर्वाचार्या विविध कथयन्ति सूत्रोक्त्या । मिथ्यात्व प्रयुक्तेन कृतं विपरीतं सम्यकत्वयुक्तेन ॥ ३९९ ॥ अर्थ- पूर्वाचार्यों ने अपने सिद्धांत सूत्रों के अनुसार उस पुण्य के दो भेद बतलाये है । एक तो मिथ्यादृष्टी पुरूष के द्वारा किया हुआ पुण्य और दूसरा इसके विपरीत सम्पग्दृष्टी के द्वारा किया हुआ पुण्य । ___ आगे मिथ्यादृष्टी के द्वारा किये हुए पुण्य को और उसके फल को बतलाते है।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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