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भाव-सग्रह
आगे कैसा पुरुष पुण्य के कारणों का त्याग कर सकता है सा कहते है।
पुण्णस्स कारणाई परिप्तो परिहरउ जेण णियचि नं ! विसय कसाय पउक्त णिाि हयपमाएण || पुण्यस्य कारणानि पुरुषः परिहरतु यंन निजचित्तम् । विषकषायप्रयुक्त निगृहीतं हतप्रमादेन । ३९५ ।।
अर्थ- जिस पुष्य ने अपने समस्त प्रमाद नष्ट कर दिये है तथा इन्द्रियों के विषय और कयाय में लगे हुए अपने चित्तको जिमने मर्वथा अपने वशमें कर लिया है ऐसा पुरुष अपने पुण्य के कारणों का त्याग कर सकता है । भावार्थ- पुण्य के कारणों का त्याग मातवे गुणस्थान में होता है । इस से पहले नहीं होता इसलिये गृहस्थों को तो पुण्य के कार कभी नहीं छोड़ने चाहिये ।
आगे यही बात दिखलाते है। गिहवावारत्तो गहियं जिसिंग रहियपसपाओ। पुण्णस्स कारणाई परिहरज सया वि सो पुरिसो ।। गृहव्यापारविरक्तो गहीतजिलिंगः रहितस्वप्रमादः । पुण्यस्य कारणानि परिहरतु सदापि स पुरुषः ।। ३९६ ।।
अर्थ- जिस पुरुष ने गृहस्थ के समस्त व्यापारों का त्याग कर दिया है जिसने भगवान जिनेन्द्र देव का निग्रंथ लिंग धारण कर लिया है तथा निग्रंथ लिंग धारण करने के अनंतर जिसने अपने समस्त प्रमादों का त्याग कर दिया है । ऐसे पुरुष को ही सदा के लिये पुण्य के कारणों का त्याग करना इनित है, अन्यथा नहीं | भावार्थ-प्रमादों का त्याग सातवे गुणस्थान में होता है । सातवे गुणस्थान मे ही वे मुनि उपशम श्रेणी में अथवा क्षपक चहते है । उपशम श्रेणी में कर्मों का उपशम होता रहता है । और क्षपक श्रेणी में कर्मों का क्षय होता रहता है । इसलियं वहांपर पुण्य के कारण अपने आप छूट जाते है । गृहस्थों को पुण्य के कारण कभी नहीं छोडने चाहिये ।